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अभी भी / जयप्रकाश मानस
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गूँज रही है चिकारे की लोक धुन
पेड़ के आसपास अभी भी
अभी भी छाँव बाक़ी है
जंगली जड़ी-बूटियों की महक
चूल्हे के तीन ढेलो के ऊपर
खदबदा रहा है चावल-आलू अभी भी
पतरी दोना अभी भी दे रहे हैं गवाही
कितने भूखे ते वे सचमुच
धमाचौकड़ी मचा रहा है बंदर अभी भी
पुन्नी का चंदा अभी भी टटोल रहा है
यहीं कहीं खलखिलाहट
मेरा मन निकले भी तो कैसे
कहीं से भी तो लगता नहीं
उठा लिया है देवारों ने डेरा