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चिट्ठी- दो कविताएँ / जयप्रकाश मानस

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एक

कविता में महक उठता वसन्त

पुतलियों से झाँकने लगता

सुर्ख सूरज

पंखुरियों में बिखर गया जीवन

हत्या से लौटा हुआ मन

तलाशता वनांचल का

आदिम लोकराग

क्यों करते पृथ्वी में स्वर्ग की तलाश

मिल गई होती काश

उनकी एकाध चिट्ठी


दो

देखते ही देखते

ख़तरा मँडराने लगा

देखते ही देखते

अहिंसक

एक-एककर

तब्दील हो गए जानवरों में

लगा जैसे समय

आग का पर्वत हो

लगा जैसे

भोला-भाला मन देकर

ईश्वर ने किया हो सबसे बड़ा पाप

क्यों दीख पड़ी

सुनहरे शब्दों की चिट्ठी

लड़की की नयी किताब में