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तीन कविताएं / जयप्रकाश मानस

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आत्मविश्वास


आग्नेय नैऋत्य ईशान वायव्य

आ धमकीं आवाज़े दशों दिशाओं से

जो मुझे एकबारगी लील जाना चाहती थीं

अजगर की तरह

पर हुआ उल्टा

आवाज़े बेजान गिरती चली गईं

कटे धड़ की तरह

मेरे विस्वास की आवाज पर

शक रहा हो गुरुतर आपको

मुझे तो क़तई नहीं


पाठ


जूतों के नीचे भी आ सकती है

दुर्लंघ्य पर्वत की मदांध चोटी

परन्तु इसके लिए ज़रूरी है-

पहाड़ों के भूगोल से कहीं ज़्यादा

हौसलों का इतिहास पढ़ना


एक कविता घड़ी पर


काँटो को देखा

पूजा-फूल तोड़ने निकल पड़ा पुजारी


ठीक इसी समय

ख़ून-खराबे के बाद

बीहड़ में गुम हो जाना चाहा डकैतों ने


ठीक इसी समय

हाट-बाज़ार, असबाब लादकर

पहुँचने के लिए व्यापारी बिलकुल तैयार है


ठीक इसी समय

चिड़ियों ने खोल दिया है

कंठ


ठीक इसी समय

सीमा पार गश्त बढ़ा दी है

फ़ौजियों ने


ठीक इसी समय तय सिर्फ हमें करना है

घड़ी थोड़े न किसी के कान में

मंत्र फूँकती है

कहती भी है तो

सबसे एक ही बात-एक ही संकेत

किसी भी समय