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अंगिका रामायण / प्रथम सर्ग / भाग 1 / विजेता मुद्‍गलपुरी

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वंदना के स्वर, स्वर के देवी के अरपित
जिनकर स्वर, स्वर ब्रह्म बनी जाय छै।
जेकरोॅ क्षरण तीनोॅ काल में असंभव छै
जगत में वहेॅ शब्द ब्रह्म कहलाय छै।
कभी ज्ञान जोत कभी काव्य के रोॅ धार वहै
जहाँ माताा सरस्वती कृपा बरसाय छै।
जिनक कृपा से काव्य मंत्र बनि जाय छै॥1॥

बार-बार वंदौं हम वाणी के विनायक के
प्रेरण से बुद्धि जे सुपंथ दिश जाय छै।
फेरो वंदना करौं भवानी के माहेश्वर के
श्रद्धा के विश्वास के स्वरूप जे कहाय छै।
श्रद्धा ओ’ विश्वास मिली बनै अर्धनारीश्वर
जौने दाम्पत्य के प्रतीक बनि जाय छै।
भनत विजेता चित्त में श्रद्धा-विश्वास राखोॅ
जिन्दगी में अपने शिवत्व आवी जाय छै॥2॥

पुरूब वंदना करौं उगते सुरूज के रोॅ
जगत में जिनकर महिमा अपार छै।
नमन अदिति पुत्र उदित आदित्य के रोॅ
गगन में जिनकर सौर परिवार छै।
सुरूज जगत पति, संज्ञा सब जीव-जड़
एक ही सुरूज बिन जगत बेकार छै।
जग में सुरूज छिक जीवन के प्राण तत्व
भनत विजेता इहेॅ जीवन के सार छै॥3॥

महाकाल निशा के रोॅ पश्चिम वंदना करौं
जौने कि जगत के सहोदर कहाय छै।
सुरूज के पहिने से सुरूज के बाद तक
सब युग में जे समरस कहलाय छै।
योग निन्द्रा के रोॅ देवी अँचरा पसारी तब
सब जन पर ऊ दुलार बरसाय छै।
जगत के प्राणी के ढंकी क निज अँचरा से
गावी-गावी लोरी, ठोकि-ठोकि क सुताय छै॥4॥

उत्तर वंदना करौ राजा हिमवंत के रोॅ
जगत जननि के जे जनक कहाय छै।
जिनकर किरती जगत में आकाश छूऐ
जिनकर यश देवलोक के लुभाय छै।
जिनकर तनुजा ई पतित पावनि गंगा
जगत के जौने तीनो ताप के मिटाय छै।
जिनकर गोद सिद्ध संत के रोॅ तप थल
जहाँ बैठि साधक परम पद पाय छै॥5॥

दोहा -

उत्तर दिश वंदौ सदा, राजा जनक विदेह।
जिनकर तनुजा जानकी, रखै भगत पर नेह॥1॥

दक्षिण वंदना सप्त-सागर अगाध सिन्धु
जौने अनमोल निधि-रतन के खान छै।
चौदह रतन जेकरा मथी क निकलल
मथनी मंदार यहाँ जेकरोॅ प्रमाण छै।
फेरो से प्रणाम करौ सेतु-वंध-रामेश्वर
जिनकर यश गावै सकल जहान छै।
बार-बार वंदना करै छी राम सेतु के रोॅ
जहाँ पानी पर तिरै अखनो पाषाण छै॥6॥

बार-बार वंदना करै छी माता धरती के
जानोॅ, तीनोॅ लोक में महान छिकै धरती।
जेकरा से रचल जावेॅ सकेॅ सहस्त्र स्वर्ग
एहनोॅ रतन के रोॅ खान छिकै धरती।
बार-बार वंदौ हम हरित वसुन्धरा के
सब प्राणी के रोॅ मुसकान छिकै धरती।
गिरि-सर-सिन्धु केॅ सहेजी राखै अँचरा में
मुद्गल बड़ मुल्यवान छिकै धरती॥7॥

गगन मंडल में अनंत सून्य बीच बसै
अलख अरूप प्रभु राम के प्रणाम छै।
जौने अविनाशी, अविकारी छै, अगोचर छै
अग-जग में रमैत राम के प्रणाम छै।
सब गुण धारक छै जगत के कारक छै
तारक सकल गुण धाम के प्रणाम छै।
जिनकर नाम सब भव बाधा नाश करै
भनत विजेता तौने नाम के प्रणाम छै॥8॥

वंदना करै छी हम सब सद्ग्रंथ के रोॅ
जग मंे जे जीवन के मरम बताय छै।
सभ्यता के हिय से लगाय जे सहेजी राखै
जिनकर यश सब संत सिनी गाय छै।
जौने कि विरागी के सिखावै छै वैराग्य विधि
जौने कि गृहस्थ के सामाजिक बनाय छै।
भनत विजेता सद्ग्रंथ के हवाला देॅ केॅ
अपनोॅ विचार जे सहजेॅ रखि जाय छै॥9॥

वंदना करै छी हम देवऋषि नारद के
जौने रामकथा वालमीकि के सुनैलका।
ब्रह्मा के आदेश मानी महाकवि वालमीकि
तमसा के तट पर राम कथा गैलका।
वहेॅ कथा ऋषि वालमीकि के आदेश मानी
लव-कुश तब घरे-घर पहुँचैलका।
वहेॅ कथा कहाकवि ऋषि वालमीकि जी से
सादर स प्रेम भारद्वाज ऋषि पैलका॥10॥

दोहा -

वंदौ तुलसी दास के, जिनकर मानस ग्रंथ।
अखनौ दिखलावी रहल, जन-जन के सद्पंथ॥2॥