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लागति अबकी सूखा परिगा / प्रदीप शुक्ल
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सब उड़े जाति सूखे सूखे
बादर काहे बरसति नाहीं!
लखि रहे गांव शायद हमार
लागति ढूंढें पावति नाहीं!!
गलियारे कै बरुआ तपिगै
भुलि भुलि पायन का खाय लेति
ठूंठन माँ चले चले जूता
दुई महिना माँ मुह बाय देति
गरमी के मारे हलेकान
बेरवौ हैं अब ढूंढति छाँही!
ताल गढ़य्या सूखि सबैं
सब मछरिन का फांसी होइगै
झन्नू कहार के लरिका कै
मुलु कमाई अच्छी खासी होइगै
भैंसी ब्वादा माँ लोटि रही
मरेह्यो पर वह निकरति नाहीं!
सब उड़े जाति सूखे सूखे
बादर काहे बरसति नाहीं!
लखि रहे गांव शायद हमार
लागति ढूंढें पावति नाहीं!!