भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लागति अबकी सूखा परिगा / प्रदीप शुक्ल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:22, 5 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रदीप शुक्ल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सब उड़े जाति सूखे सूखे
बादर काहे बरसति नाहीं!
लखि रहे गांव शायद हमार
लागति ढूंढें पावति नाहीं!!

गलियारे कै बरुआ तपिगै
भुलि भुलि पायन का खाय लेति
ठूंठन माँ चले चले जूता
दुई महिना माँ मुह बाय देति
गरमी के मारे हलेकान
बेरवौ हैं अब ढूंढति छाँही!

ताल गढ़य्या सूखि सबैं
सब मछरिन का फांसी होइगै
झन्नू कहार के लरिका कै
मुलु कमाई अच्छी खासी होइगै
भैंसी ब्वादा माँ लोटि रही
मरेह्यो पर वह निकरति नाहीं!

सब उड़े जाति सूखे सूखे
बादर काहे बरसति नाहीं!
लखि रहे गांव शायद हमार
लागति ढूंढें पावति नाहीं!!