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लाख दुश्मनों वाली दुनिया के बावजूद / जयप्रकाश मानस

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कुछ हो न हो

मेरे हिस्से कि दुनिया में

रहूँ दुनिया के हिस्से में मैं

सोलह आने न सही

लेकिन दुनिया की तरह


विवशताएँ हों

ताप बढ़ाने के लिए

सकेले गए गीले जलावन की तरह

सफलताएँ भी ऐसी

कि न हो औरों की विफलताएँ जिनमें

थोड़ी-सी नींद

नींद में निटोरती आँखें

ढोर-डंगरों से बचाने लहलहाते खेतों को

सभी दिशाओं से

उफान मारती नदी हों

पर नाव भी तो आसपास एकाध


काँटे चाहे जितने हों

पैरों के नाप पर कोई मंज़िल भी तो हो

छकने के लिए छप्पन-भोग

तो अकाल में

कनकी पेज से भी तो संतोष हो


जितनी अठखेलियाँ हों इधर

लापरवाही के माने

कम्प्यूटर, मोबाइल, कार पोर्च वाली

इमारत न सही


हों जरूर कार्तिक-स्नान के दिनों में

रात को भिगोए हुए फूल

देवता के लिए

चुकते हुए शब्दों के लिए

हों संदर्भ कोई नवीन

औषधि की तरह

भले ही शब्द हों निढाल

मंत्र हो सिद्ध सभी, हो जाएँ भोथरे

निरपराधों को विद्ध करने के पहले


सूरज पुराना

नक्षत्र-ग्रह-तारे

सभी अपनी जगह

लेकिन हर दूसरे दिन

कुछ ज़्यादा मोहक

कुछ अधिक अधिक लुभावने

कुछ अधिक प्रेमातुर लगें

कभी घृणा के लिए अवकाश भी तो हो

प्रेम में आकण्ठ डूबने के लिए

मन में उपान की शर्तों पर


कुछ घात लगाएँ दुश्मन

मीठे बोल के ख़तरनाक पड़ोसी

कहीं से आएँ तो सही यकायक

बुरे वक़्त में दोस्त कोई देवदूत की तरह


कुहासे, धुंध, तुषारापात के

बीचों-बीच कोई चांद भी हो तो

किरण बिखेरने के लिए

मेरे हिस्से की दुनिया में