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हिन्नें लोढ़ी हुन्नें पाटी / अमरेन्द्र

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हिन्नें लोढ़ी हुन्नें पाटी, सकर कन्न बीजू बन्न।

देखी अयलौं शहरो केॅ भी, गांवोॅ केॅ तेॅ देखले छै
के बचैतै दोनों केॅ ? संहार दोनों के लिखले छै
झुट्ठे हल्ला छेलै कि लोगोॅ केॅॅ चैन छै शहरोॅ मेॅ
प्राण उठै छै अमरित मेॅ भी, नै खाली ई जहरोॅ मेॅ
खून-खराबी, कोर्ट-कचहरी, मोॅर-मोकदमा रोजे-रोज
खून करै छै कौनें केकरोॅॅ, पुलिस करै छै केकरोॅ खोज
हरदम्मे छाती सें सटलोॅµ छूरा-बन्दूक की-की नै
कना रहै छै तौ पर भी सब ? काका, लोग वहाँ करोॅ धन्न ।

गाँवों में की सुख छै काका ? वहेॅ डकैती मारे-पीट
बड़का मैलकोॅॅ के हौ जूता, आरो हमरोॅ खुल्ला पीठ
शहरे हेनोॅ मारबोॅ-काटबोॅ, औरत के इज्जत सें खेल
बीच-बचाव करोॅ तेॅ काका, उल्टे जैभा थाना-जेल
पुजते रहोॅ जिनगी भर, फेरू ई सोॅर-सिपाही केॅ
के चाहै छै भोगै लेॅ ई नरक, कहोॅ नी । चाही केॅ ?
बोलोॅॅ माथा कहाँ बचाय लेॅ जैभा, कक्का ! शहरोॅॅ में ?
दोनों तरफें पथरे राखलोॅॅ, सोची केॅॅ हम्में छी सन्न ।

सब जग्घोॅ के एक्के रं लोग, सब जग्घोॅ के एक्के हाल
काँटोॅ गाछ मेॅ काँटे जादा होय छै, जोॅड़ रहेॅ या डाल
निकलोॅ नै गल्ली -कुच्ची मेॅ, निकलोॅ नै चैराहा पर
की काका विश्वास करै छोॅ, ई लोगोॅ बौराहा पर
नै बूझे छै प्रेम-दया कुछ, धोॅर-धरम के बातें की
जे साथी रास्ता में लूटेॅ, ऊ साथी के साथे की
मारी दै कि काटी दै, पर केॅॅहै लेॅ नै छोड़वै ई कि
आय सुरच्छा ओतनै महगोॅॅ-जतना की महगोॅ छै अन्न ।