भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पास सूखी नदी के किस्से / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:54, 15 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार रवींद्र |अनुवादक= |संग्रह=प...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
फिर
वही जलती मशालें
शहर भर में
धुएँ की दीवार
हाथों में उठाए
हर गली में
फिर रहीं पगली हवाएँ
घुप
अँधेरे हो रहे हैं
दोपहर में
शोर की परतें
घरों पर जम गयीं हैं
साँस जैसे काँप कर
फिर थम गयी है
सिर्फ़
गहरे घाव हैं
दूबे ज़हर में
गाँव भर के
इस कदर हिस्से हुए हैं
पास सूखी नदी के
किस्से हुए हैं
काठ की
गुड़िया पड़ी है
खंडहर में