मंगल / प्रेम प्रगास / धरनीदास
चौपाई:-
प्रथमहि परमेश्वर को नामू। जौ सब सन्तन कर विश्रामू।।
अलख अखंडित अगम अपारा। जिन कीना यह सकल पसारा।।
सकल सृष्टिकर भोजन दाता। युग युग अविचल एक विधाता।।
सर्व कर्म सो कर्त्ता करई। वाउर नर औरन शिर धरई।।
जो जन तन मन प्रभु रंग राता। तिनसों विलग न रहत विधाता।।
विश्राम:-
विश्वम्भर विसरावही, सो नर कूर कुजान।
जो हरिसों चित लावई, पावे पद निर्वान।।1।।
चौपाई:-
गुरु महिमा अति अगम अपारा। गुरु बिनु बूडि मरै संसारा।।
गुरु बिनु पुनि पुनि आवै जाई। गुरु बिनु भव जल परै भुलाई।।
गुरु बिनु पाप पुन्यकर आसा। गुरु बिनु परे काल के फांसा।।
गुरु बिनु देई देवा सेवा। गुरु बिनु मिलै न मुक्ति को मेवा।।
गुरु बिनु लाकाचारहिं लागा। गुरु बिनु शंसय भरम न भागा।।
विश्राम:-
गुरु महिमा को कहि सके, गुरु देवन को देव।
जो गुरु तत्व अखाइया, धरनी सो गुरु सेव।।2।।
चौपाई:-
तब पुनि सकल साधु शिर नावों। जिनकी कृपा अभयपद पावों।
जे बुधिवन्त सन्त जग मांही। विनती करौं सकल जन पांही।।
आपु उक्ति नहि आखर करऊं। गुरु-प्रसाद लहि सन्मुख घरऊं।।
तेहि आखर जनि हाँस लड़ावहु। जो लघु होय सो समुझि सुधारहु।।
मूरख कर मोहि शोच न आवै। हँसै कि विलखै जो मन भावै।।
विश्राम:-
पढ़त गुनत गुरु साधु जन, खंडित लेहु मेराय।
सुघर हाथ पर पाथ्र, मोल बहुत ठहराय।।3।।
श्लोक:-
उदयं श्रीपुरं पम्पां, पंच वटयाहयं तथा।
यो जानाति चतुः स्थानं, तस्मै नित्यं नमो मम।।