भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैना प्राणमती मिलाप / प्रेम प्रगास / धरनीदास

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:10, 19 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धरनीदास |अनुवादक= |संग्रह=प्रेम प...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चौपाई:-

कहयो कुंअर अब कंह कुशलाई। आगे हवे जो विधिहिं नाई॥
युगल प्रेम-आलिंगन दीना। अस्तुति भाव वहुत विधि कीना॥
धन्य वचन मैना प्रति पारे। परमारथ परहित उपकारे॥
हम लगि दिशहिं दिशहिं तुम गयऊ। श्वास लेन को समय न पयऊ॥
के धों जगत ढूढि नहि पाऊ। सो मोहि अपन अर्थ सुनाऊ॥

विश्राम:-

परमारथ मम प्राण सखि, हमहिं कहो समुझाय।
केहु विधि विधी मिलाइहे, के ऐसहि दिन जाई॥138॥

चौपाई:-

कह मैना सुनु राजकुमारी। सुनहु श्रवन दे बात हमारी॥
यह तो जग जाने सब कोई। साहस करे अवशि सिधि होई॥
जो तुव मन वच कर्म विचारा। एक दिवस पुरइय कर्त्तारा॥
चिन्तामणि प्रभु के है नामू। चि सो नेह सकल जगधामू॥
सुनहुं सुंदरि ढूंढयो जेहि ठाऊं। आपन सेवा तुमहि सुनाऊं॥

विश्राम:-

प्रथमहिं ढूढयों देशफिरि, सागर के यहि ओर।
छोट मोट जत नरपति, कतहुं न लायऊं मोर॥139॥

चौपाई:-

पुनि किय गवन महोदधि पारा। तुव प्रताप विधि मोहि निस्तारा॥
सो प्रकार मुख कहत न आवै। श्रोता सुनि के ज्ञान गंवावै॥
जम्बूदीप द्वीप मंह गयऊं। भरत खंड मंह देखन गयऊं॥
पूर्व गमन किय सिंधु किनारा। वाहि दिशा देखे भुवपारा॥
वि पच्छिम उत्तर गिरि हेरा। मध्य देश मंह कीन निवेरा॥

विश्राम:-

पुनि पच्छिम कंह गवन किय, तुव कारन लव लीन।
सब लच्छन नहिं पायऊं, मिले कछुक गुन हीन॥140॥

चौपाई:-

चारों दिशा हेरि जब हारी। प्राण तजन हम चले कुमारी॥
जाय अगिन जरनो अभिलाषा। यहि अन्तर भा शब्द अकाशा॥
श्रवनन सुनो देवकी वानी। पंचवटी चलि जाहु सुजानी॥
सूरजवंश विदित सब ठाऊं। देवनरायण नृप के नाऊँ॥

विश्राम:-

सुनु सुन्दरि का वरनिवो, वरनि सकै ना कोय।
तब वहि उपमा लाइये, जो दूसर महि होय॥141॥

चौपाई:-

ताके कुंअर एक मनियारा। मनमोहन तेहि नाम कुमारा॥
वल गुन वृद्धि रूप अनुमाना। सव दीन्हयो तेहि श्रीभगवाना॥
कैसे ताको रूप वखानो। जेहि देखत गन्धर्व भुलानो॥
पंथ विकट अति दूर रहाई। तजि पंखी मानुख नहि जाई॥
औ पथि सागर को विस्तारा। जौ निस्तार करै कर्त्तारा॥

विश्राम:-

सव विधि नागर आगरो, जगत उजागर अहि।
तौ तुव मनसा पूछऊं, जो विधि मेखे ताहि॥142॥

चौपाई:-

सुनतहिं हिये वियापो कामा। जैसे सुन्यो कुंअर को नामा॥
कहै कुंअरि तुम कियो नियारा। खोजि लै आइब राजकुमारा॥
अब कस फल अकाश दिखारावहु। द्रोह पर जस लोन लगावहु॥
आय वचन सो मोहि सुनाई। जो सुनिके दुख दावरि आई॥
सोवत होतो मानि भुअंगा। ले लकरी खोद्यो तेहि अंगा॥
अगिन होत निज सहज सुभाऊ। घृत आहुति तापर ढरकाऊ॥

विश्राम:-

अब जो मोहि देखावहू, तौ तन राखों प्रान।
नाहि त तोहि अपराध भौ, मन क्रम निश्चय जान॥143॥

चौपाई:-

कुँअरि कि दशा देखु जब मैना। ताक्षण कहा वचन सुख चैना॥
सुनहु कुंअरि आतुर जनि हूजे। धीरज धरे मनोरथ पूजै॥
अब अपने मन करहू ज्ञाना। देव वचन हवै है नहि आना॥
तुव वर मनमोहन मनियारा। अवशि मिलन करि है कर्त्तारा॥
कै विधि वाहि यहां ले आऊ। कै प्रभु तोहि वहां पहुँचाऊ॥

विश्राम:-

जासों पुरविल प्रेम है, सहज मिले मग आय।
धरि धीरज धरनी कहै, आतुर काज नशाय॥144॥

चौपाई:-

इतना कहि जब कुंअरि वुझाऊ। तब निज अर्थ कहैसि सतिभाऊ॥
जो फल तोति अकाश वतायो। सो विधि साथ यहां ले आयो॥
पूछै कुंअरि आह कत दूरी। मोहि मिरतकहिं सजीवन मूरी॥
धरे देह धौं कवन प्रकारा।....
पंथ कथा जनि पूछु कुमारी। कहत न वनै दीर्घ विस्तारी॥
कठिन विकट पथ प्रभु लै आऊ। अस साहस जग करै न काऊ॥

विश्राम:-

झारखंड संग्राम कहि, वड दुख सागर मांह।
हरिसागर निर्वाहिया, दुर्जन दानव पांह॥145॥

चौपाई:-

पहिले कियो वहुत परकारा। कैसहु चले न राजकुमारा॥
तव मैं देवन पर हठ कीन्हा। कुँअरहिं कहो कि मैं जिय दीन्हा॥
देवन कहयो कुंअर सन एही। प्राणमती तुव पूर्व सनेही॥
तब निकलो घर छजेडि कुमारा। हृदय मांझ धरि सिरजन हारा॥
भाग तोहार मोहि यश होई। लै आओ विधना धरि ओही॥
तुम तिय मंद तजो किमि देहा। तोहि वहि हवे है सहज सनेहा॥
वहुत कहत नहि आवत मोरे। वैठो कुंअर सरोवर तोरे॥

विश्राम:-

सुनत कुंअर की आवनी, सुधि वुधि पलट शरीर॥
लगे व्याधि जनु औषधी, क्षणहिं रहित भौ पीर॥146॥

चौपाई:-

सरवर तीर वृक्ष वट आहा। करु विश्राम तहां नरनाहा॥
भेष दशा जनि सुनहु कुमारी। परम मगन मनभाव भिखारी॥
जटा जूट है शीश वनाये। अंगहि अंग विभूति चढ़ाये॥
श्रवनन कुंडल कंठ वृषाना। उर माला को करै वखाना॥
करि कथा चलु कुंअर वहांते। लै लौआ एक कर्त्ता नासे॥

विश्राम:-

जटा मुकुट तन भस्म वस, कुंडल माल वृषान।
अवर सकल संशय तजे, गहे भजन भगवान॥147॥

चौपाई:-

सुनत कुंअर तनभो छटपट्टी। अंगहि अंग भवो खटपटी॥
जा मैना जैह राजकुमारा। कुंअर रहो तुव पंथ निहारा॥
आयउ यहां वहुरि पर भाता। हो हवै है जो कछु करिहि विधाता॥
अस्तुति कवन करों मैं तोरी। तव गुन गरुव थोर मति मोरी॥
गई मैना तब कुंअर के ठाऊं। सकल कथा विरतंत सुनाऊ॥

विश्राम:-

मनमोहन मन लाइके, औ सुमिरो कर्त्तार।
अवशि मनोरथ पूजिहै, अस सुनु राजकुमार॥148॥

सोरठ:-

मैना चलिगो वाग, जहां कुंअर सरवर निकट।
कुंअरि नयन पट लाग, शिव गौरी सपने कहयो॥
लच्छ मुरति जेवनार, तुरत जेवावहु कामिनी।
करि हो कहल हमार, अवशि मनोरथ पूजिहै॥