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मैना का प्रवोधन / प्रेम प्रगास / धरनीदास

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चौपाई:-

जब मैना मुख सुनु विरतंता। रोम रोम तन भौ हर्षन्ता॥
जान्यो अगिनि भई मनि सोई। विषधर कनककूट जनु होई॥
तब कहु कुंअरि सुनो हितसारी। मनमोहन दर्शन व्यवहारी॥
न्योत्यो सकल राज तपसीजन। एक मंडल है अन्तर सो दिन॥
सो दिन सुफल सुदिन है सोई। जा दिन दरश प्राणमती होई॥

विश्राम:-

कुंअर नयन निज देख्त्यों, जीव कि शंसय फेर।
कह धरनी तब होइहै, जो सपना प्रभु केर॥160॥

चौपाई:-

साठ दंड जग होत दिवस है। एक एक दिन मोहि वरिस है॥
तौ लगि मैना विधिहिं मनावहु। उहां रहे इहवौं नित आवहु॥
खान पान जो कुंअरि चहिये। सो सब कहत संकोचन गहिये॥
कुंअरक सेवा तुव शिर सारी। तुम तो मैना पर उपकारी॥
मैं मन वच तव आज्ञाकारी। हम कहिके कत होहि गंवारी॥

विश्राम:-

तुम सेवा तिनकी करो, मैं सेवक तव आहि।
जौं लगि भोजन वाहरो, लोचन देखें ताहि॥161॥

चौपाई:-

मैना गो मनमोहन पासा। जाय कियो सब वचन प्रकाशा॥
मैना इत आवै उत जाई। घाटवाट की नावरि भाई॥
कुंअर अनंदित सव क्षण रहही। हरि सुमिरन अमिअंतर करही॥
जो आवै दर्शन करि जाही। अस्तुति डोरि पसरे आई॥
एक एक वार देखि सब आऊ। सगरे नगर न दूसर चाऊ॥

विश्राम:-

देश नगर चर्चा चली, अस अतीथ एक आव।
पटतर ताके रूपको, सुर गन्धर्व न पाव॥162॥