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मनमोहन का गृह प्रस्थान / प्रेम प्रगास / धरनीदास

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चौपाई:-

प्रमुदित प्रतिदिन एकै संगा। करहिं कुंअर मिलि नव नव रंगा॥
भयउ मिलाप वहुत परकारा। मास एक तंह रह्यो कुमारा॥
परमारथ कह राज कुमारा। नृप सो विनती करहु हमारा॥
करहिं अनुग्रह मोपर राऊ। देखों मातु पिता के पाऊं॥
जंह रहु ज्ञान ध्यान भुवपारा। वैठे मित्र दुवो पटसारा॥
तंहवा पुनि मैना चलि जाई। आगे ह्वै के विनती लाई॥

विश्राम:-

कह्यो जो सुन्यों कुंअर मुख, मैना कहु समुझाय।
ज्ञानदेव मन गुनि रहो, वचन वकति नहि आव॥245॥

चौपाई:-

घरी एक मन गुनत भुवारा। पुनि हृदयामंह कीन्ह विचारा॥
यह मारग जग चहुंयु आहा। दुहिता जाय पती गृह माहा॥
अब राखे ते कुंअर न रहई। विछुरन पीर कठिन अति अहई॥
पुनि उर अन्तर मोह जनाऊ। लोचनकमल युगल मरिआऊ॥
ध्यानदेव सों पूछ भुवारा। कहो मित्र कस करिय विचारा॥

विश्राम:-

मोहि कहत नहि आवई, विदा कुंअर मनमाना॥
जो आज्ञा हो रावरी, सोई वचन प्रमाना॥246॥

चौपाई:-

ध्यानदेव भूपति असकहऊ। अब कछु चिन्ता अवर न करऊ॥
ब्राह्मण वोलि घरी ठहराई। वेगहिं विदा विचारहु भाई॥
अब कुंअरहिं राखे रस नाहीं। हम तुम सागर तट ले जाहीं॥
ज्ञानदेव अन्तःपुर आये। सब रनिवासन वात जनाये॥
महथ पुरोहित अवर प्रधाना। भवो मंत्र सबके मनमाना॥
ज्ञानमती को समदन कियऊ...॥
जब सब चलिगे सिन्धु किनारा। राजा के पग परस कुमारा॥
ज्ञानध्यान गहि अंक में झारी। नेगिन कियो जहाज तयारी॥
हाथी घोड सकल समुदाई। जो कछु चढो सो लीन चढाई॥
दासी दास संग जत पाई। भरि जहाज धन लीन विदाई॥

विश्राम:-

तत क्षण चढो जहाज पर, सबसों विनती लाय।
अवर लोग जत फिरि चले, नृपति दौऊ वहराय॥247॥

चौपाई:-

मनमोहन सुमिरो हरि पाऊ। तुम चिन्ता मनि चरित कराऊ॥
मन वच करम अलम्ब न आना। पार करो अब श्रीभगवाना॥
कर्त्ता तुमहि करो सो होई। थाप्यो जो कछु टरै न सोई॥
तेहि वेला वोहित चलु कैसे। पवन वेग वादल चलु जैसे॥
दृगन ओट जब भयउ जहाजा। चलु धीरज धरि दूनो राजा॥
अपने अपने देशहिं गयऊ। कुंअरहिं कृपा कृपानिधि कयऊ॥

विश्राम:-

अल्प दिवस मंह सहित सुख, प्रभु पहुंचायउ पार।
संगिन सों संगम भयो, अस महिमा कर्त्तार॥248॥