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माया / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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पहिरे चोला चाम का, कोइ सपेद कोई स्याह।
धरनी माया नटिनि ने, विरचि कियो सब काह॥1॥

राजा रंक यती सती, बचे चोर नहिँ साह।
धरनी भवजल सब परा, कोई अथाह कोई थाह॥2॥

अटा झरोखा धौरहर, और कंगूरा कोट।
धरनी राखि सकै नहीं, काल-गुलेला चोट॥3॥

वडो खोदावो पोखरा, अरु लावो लखराँव।
धरनी प्रभुकी भक्ति बिनु, पुनि चौरासी ठाँव॥4॥

धरनी धरन के कारणे, धाइ मरे नर लोइ।
एक धनी के नाम को, विरहा विरलहिं होई॥5॥

धरनी धन जो जीवरा, आगे आवै धाय।
तुरतहिं उत्तर दीजिये, सन्त शहर को जाय॥6॥

धरनी माया-मंडली, घेरि रही नव खण्ड।
तजि माया हरि को भजै, ता कहिये वरिवण्ड॥7॥

माया के वश होइ रहे, तीनि लोक जत कोय।
बाँचे कोई 2 साधुजन, धरनी देखु विलोप॥8॥

माया-गुण जिमि साँपिनी, पावै तेहि धरि खाय।
धरनी जो जन बांचि है, आगे दिया चलाय॥9॥

धरनी माया-कारणे, लोक न सूझै साँच।
जो निकरै घर वार तजि, ताहु नचावै नाच॥10॥

वने चौतरा चित्र-धर, चौखण्डी चौपारि।
धरनी जो हरि-भक्ति नहिँ, ये सब कियो फुसारि॥11॥

धरनी माया जो मिलै, परमारथ करि लेहु।
ना तो फिररि पछिताइहो, जा दिन देह विदेह॥12॥

धरनी माया जानव, संसारी शैतान।
साधु तमाशे छकि रहे, चढ़ि ऊँचे मैदान॥13॥

धरनी माया ईश्वरी। ताहि रिझन है राम।
जँह माया है आसुरी, ताको सरै न काम॥14॥