जो सुमिरन सन्तन कियो, सुमिरो धु्रव प्रह्लाद।
धरनी सो सुमिरन करो, परिहरि वाद विषाद॥1॥
मंत्र पढ़हिँ माला जपहिँ, धरनी ते असरार।
अजया सुमिरन करत हैँ, ते विरले संसार॥2॥
धरनी सुमिरन कीजिये, भीतर पैठि अवास।
अग्नि पवन पानी नहीं, धरनी नहीं अकास॥3॥
धरनी सुमिरन सो भला, धुनि उपजै घट माँहि।
जागत सोवत रैन दिन, तनक बिसारै नांहि॥4॥
धरनी सुमिरन सो भला, कया-मया विसराय।
आतम-परमातम मिलै, ज्यों जल जलैहि समाय॥5॥
दशन पांति मनिया बनी, रसना बनी सुमेर।
धरनी सुमिरनि सहजकी, तत माला सब ढेर॥6॥