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यूं ही बेसबब ना फ़िरा करो / बशीर बद्र

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Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:39, 15 मार्च 2008 का अवतरण

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यूं ही बेसबब ना फ़िरा करो किसी शाम घर भी रहा करो
वो गज़ल की सच्ची किताब है उसे चुपके चुपके पढा करो

कोई हाथ भी ना मिलायेगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नये मिजाज का शहर है जरा फ़ासले से मिला करो

अभी राह में कई मोड़ हैं कोई आयेगा कोई जायेगा
तुम्हे जिसने दिल से भुला दिया उसे भूलने की दुआ करो

मुझे इश्तहार सी लगती हैं ये मोहब्बतों की कहानियां
जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो

कभी हुस्ने-पर्दानशीं भी हो जरा आशिकाना लिबास में
जो मैं बन संवर के कहीं चलूं मेरे साथ तुम भी चला करो

ये खिज़ा की जर्द सी शाम में जो उदास पेड के पास है
ये तुम्हारे घर की बहार है इसे आंसूओं से हरा करो

नहीं बेहिज़ाब वो चांद सा कि नज़र का कोई असर नहीं
उसे तनी गर्मी-ए-शौक से बड़ी देर तक ना तका करो