सिधवाइ अछरा लीला / शब्द प्रकाश / धरनीदास
उँ कारहिँ सब सृष्टि बनाई। ऊँ कारहिँ बिसरो जनि भाई॥
ऊँ कारहिँ चहुँ वेद बखाना। ऊँ कारहिँ विरले जन जाना॥1॥
नाम सराहो सिरजनहारा। नाना वरन कियो स्तिारा॥
निर्गुन पुरुष निरन्तर जोई। नारि पुरुष सबही मेँ सोई॥2॥
मालिक एक जगत फुलवारी। मानिक वहै जोति युग चारी॥
मूल मंत्र गुरु गमित गहो। मति बहुतेरा वकि वकि वहो॥3॥
सिद्ध पुरुष है एकाकार। शून सरोवर अगम अपार॥
सत गुरु मिलै तोले पहुँचावै। सिखि लिखि पढ़ि गुनि हाथ न आवै॥4॥
धंधा करत गये कत पुरुषा। धरो भक्ति भव तीरजा मुरुखा॥
धोखहिँ धोख जन्म चलि जाई। धरनीश्वरकी धरु सेवकाई॥5॥
अनहद शब्द लेहु ठहराई। अजपा जायप जपौ मन लाई।
अरध उरध धारि सुरति निरेखो। आपा मेरि आप कँह देखो॥6॥
आवत जात कर्म के फेरा। अजहुँ चेत चित सहज सवेरा॥
आपु आपने मँह ठहरावै। आपै ”आप“ तहाँ चलि आवै॥7॥
ईश्वर नाम कहो बहुप्रीति। इष्ट जानि राखो परतीती॥
यहै वात निरुआरो भाई। इहँवा है दिन चारि सगाई॥8॥
ई जानि जानो धन वित मोरा। इस्त्री वालक हस्ती घोरा॥
ई देही वहुतेँ तप पाओ। इहँवहिँ आपन मन ठहराओ॥9॥
ऊरध मूल अधोमुख डारा। उहै वृच्द तिहुँ लोक आधारा॥
ऊ जानै जेहि उहै जनावै। ऊ पावै तेहि और न पावै॥10॥
ऊमति जानै उत्तम सोई। ऊ पद पावै विरला कोई॥
ऊ मद माते ई मद त्यागै। उदित प्रताप काल उठि भागै॥11॥
ऋषि मुनि गन सुरनर मुनि ध्यावेँ। राम कृपा जापर सो पावै॥
रामरतन कर जाको भेदा। राजा सोइ साखी है वेदा॥12॥
ऋण उधार जग को व्यवहारा। राखो सत्य सदा धन सारा॥
रोपहु दया वृक्ष धरि तंतू। रहेँ संत जँह जाघर कंतू॥13॥
लीन भये हरि नामहि राते। लुवधे प्रेम-सुधा रस माते॥
लाख माँह विरले संसारा। लोक-क्रियाते रहै नियारा॥14॥
लिखा लिलार अचिंताहि कोई। लाख उपाय करै जो कोई॥
लाभ मिलो ताको जग आई। लोभ तामसहिँ दीन विहाई॥15॥
एकै प्रभु एकइस व्रह्मंडा। एकहिँते इ भया नवखंडा॥
”एक“ सनेही विरला कोई। एक भजे मिलि एकै होई॥16॥
एसन जानै ज्ञानी सोई। ऐसन जानि परम गति होई॥
ऐसहिँ ऐसे दिवस खोटाई। ऐसन भेद न हृदय सुभाई॥17॥
अब करि रचना सब संसारा। आकर कैल विविध परकारा॥
वहि बिसरावै अंध गँवारा। ओदर माँह दियो जिन चारा॥18॥
औरो कहाँ सुनो रे भाई। अवसर भलो करो अतुराई॥
अब जनि करो काय विश्वासा। औचक हीँ प्रभु कर तमाशा॥19॥
अंक लिखा सो कौन मिटावै। अंश आपनो सहजहिँ आवै॥
अन्धा नर आगे नहि सूझै। अंतहु रामशरन विनु जूझै॥20॥
गहना करो तिलक अरु माला। गहो चरन गुरु जानि दयाला॥
गह तह वोलत गहि ले ताही। गहवर नाहि वसै घर माँही॥21॥
साधुन ततु वस्तु ठहराई। यह संसार सार सिधवाई।
वार वार बढ़ै मनजानी। धरनी धन्य सोई नर प्रानी॥23॥