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विलावल अलहिया / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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19.

तब कैसे करिहो राम-भजन।टेक।
अबहि करो जो कछु करि जानो, औचक उचकि चलैगो तन॥
अंत समय कस शीश उठैहो, खोलि न ऐहै दसन रसन। थकित नाडिका स्रवतजल, विकल सकल अंग नख न सिख न॥
ओझा वैद सगुनिया, डोलत आँगन द्वार भवन। मातु पिता परिवार विलखि मन, तोरि लिये अभरन॥
वार 2 गुनि 2 पछितैहो, परवश तन मन धन। धरनी कहत सुनो नर प्रानी, वेगि भजो हरि चरन शरन॥1॥

20.

भली भई मेरो भरम भुलानो।टेक।
बहो जात भव-सागर वहिय, जीव न पावत ठोर निकानो॥
फाँसी लोक कया की छूटी, टूटी डोरि सकोच सिहानो। मेटो मिमिर खंड घट शंसय, प्रगटी प्रीत जगतहू जानो॥
यह मन मन्द जहाँ तहँ इत उर, गृह 2 डोलत श्वान समानो। अवते परो संत की संगति, द्वंद दुर आनन्द समानो॥
जा कारन दह दिसि धुपि घाओ, सो अपने हृदय ठहरानो। धरनी वरनि सकै नहिँ शोभा, तन मन प्रान भवो गलतानो॥2॥

21.

पियहु तमाकू अमलि अपार।टेक।
मानुष जन्म पियहु पियारे, पुनि कँह पैहो दूजा वार॥
मन राजा पलँगा वैसारो, तत तँह खिदमतगार। हुक्का घट सरधा जल निर्मल, बाहर भीतर प्रेम पखार॥
बुधि बाते जा ता अभिअंतर, तापर करु चित विलमकरार। तृष्णा तोरि तमाकू भरिले, जीव-दया धरु तपत अँगार॥
गुडगुडि ज्ञान सुजान सुथिर करि, नर नारायन अधर अधम। खँसो सहज परम सुख पैहो, साँच शब्द जब करिहो धुकारा॥
तनमँ तनिक भरम जनि मानो, साधुजना जँह जुरहीं यार। धरनी धरिले ध्यान धनीको, दुर करु दुरमति धुँआसार॥3॥

22.

पियहु भरम तजि भंग सुरंग॥टेक॥
जाके पियत परम पद पैहो, वेदन रहत न एको अंग॥
कुंडी काया शोधन करके, ज्ञानको सोटा धरो सुढंग। प्रेम मंदिरमाँ आसन करिले, जोरि जमाति साधु जनसंग॥
काम कपूर धालिकर घोटो, मन की लाची मेलि लवंग। निर्मल जल दाया घट पूरन, साफी पाँच तत्व॥
उधर उरध तँह स्रवत सुधारस, लुवुधे मनि-मन मलय-भुअंग। निरखत अमल चढ़े नख सिखलाँ, निशिवासर मन उठत तरंग॥
गुरु-गम एक पियाला पावै, अमल न उतरै युग पर संग। धरनी धनि अवतार ताहिको प्रतिदिन यहै चढ़ावै भंग॥4॥

23.

एक अलाह की मैं कुर्बानी। दिलवर वह मेरा दिलजानी॥
तू मेरो साहेब मैं तेरो वन्दा। मैं तेरो कोई तू मेरो चन्दा॥
बार 2 तुम कँह शिर शिर नाआँ। जानि जरूर तुमहिँ गोहराऊँ
तुमहि हमारे ”मका“ मदीना। तुमही रोजा रिज्क रोजीना॥
तुमहि कोरान खतम खतमाना। तू तपस्वी अरु दीन इमाना॥
मैं आशिक महबूब वदरसा। वेगर तोहि जहान जहरसा॥
देहु दिदार दिलासा एही। ना तो जाव विनशि वरु देही॥
कादिर तुमहि कदरको जाना? मैं हिन्दू धाँ मूसलमाना॥
धरनीदास खड़ो दर्वाजा। सबके तुमहि गरीबनेवाजा॥5॥

24.

आव भजो हरि की शहनाई। दिन 2 काल अवधि नियराई॥
जब नहि ब्रह्म विष्णु त्रिपुरारी। स्वर्ग मर्त्त पाताल दुआरी॥
सर नर नाग दसो अवतारा। तबका कहो सुनो संसारा॥
उतपति एक शब्दते भयऊ। त्रिगुन त्रिदेव तिहू पुर ठयऊ॥
तिनके भयउ सकल विस्तारा। आपुर पार अवर सब वारा।
भुवन चतुर्दश नाव बनाई। एकहि खूँटे सबहि खुँटाई॥
सत गुरु मिलै तो भेद लखावै। लोक लाज तजि हरि चितलावै॥
धरनीदास कही मुख वानी। आपन मूल खोजहू नर प्रानी॥
तँहवा राखो मन ठहराई। पढ़ि गुनि पार कोऊ ना पाई॥6॥

कहत बने ना अकथ कहानी। सो समुझै विरै गुरुज्ञानी॥
खाख अनेक अपूरब गाछा। तापर एक अमिय फल आछा॥
अति दीरघ अरु सहजहिँ छोटा। अति दीरघ अरु सहजहिँ छोटा।
निपटहि क्षीण बहूतै मोटा॥
सो नहि मिलत पढ़ै पंडिताई। तब नहि काव्य कथा गुन गाई॥
सोनहि मिलत धरा भरधाये। ओ नहि सहस भँडार लुटाये॥
काम दहिन पथ परिहरि भाई। चढ़ो मध्य मगु सन्मुख धाई॥
चढ़न यतन गुरुदेव लखाई। सो पुनि पुनि कहु सुनु चिलाई।
प्रेमकि डोरि गहो मेरो यारा। ज्ञान दिया घर करु उँजियारा॥
त्रिकुटी संगम जो लौ लैहो। धरनी सहज दरस तब पैहो॥

26.

जो हम हैँ सो हरि, हरि जिय जानै। कै विरले हरिजन पहिचानै॥
नहिँ हम साहेब नहि हम सेवा। नहि हम भूत न मानुष देवा।
नहि हम गरु गोसाई चेला। नहि सत-संगति नहीँ अकेला॥
हिन्दू तुरुक माँह हम नाहीँ। नहि वैराग न योग कमाहीँ॥
कायर, शूर, पुरुष, नहि नारी। पंडित, मुरुख न भूप, भिखारी॥
नाहि हम व्याधा वधिक अद्ययी। नहि अपराधी नहि धर्माधी॥
नहि हम आवहिँ नहि हम जाँही। जाति अजाति वरन कुल नाही॥
निपट निरंतर निरखित तमाशा। आया मेटि आपानहि नाशा॥
धरनी अब कछु कहत न आवै। हमका कहो जाहि जस भावै॥8॥

27.

मन वच क्रम मम तुमहि अधारा। भव-सागर जल अमग अपारा॥
देव पितर तुहि तिरथ नहान। व्रत सुमिरन पद पुजा पुरान॥
तेँ कैलाश तुही वैकुंठ। तुहि धन धन्य अवर धन झूठ॥
जप तप सगुन सुदिन शुभ घरी। औषध वैद न तोहि परिहरि॥
अंधक टेक मनि कनक कृपन धन। धरनी आदि अंत एकैजन॥9॥

28.

मानु मति धनि चरखा कातु। टेक। और उदमके रंगन रातु॥
कर्म काठकै चरखा गढ़ाव। चंचलता चमरख पहि राव॥
जी जँवर वीर बाँधु अवाल्ह। सहज सुरति करु मोह के माल्ह॥
टकुआ टेक हृदय धरु नारि। कर गहि पिउनी प्रीति सँभारी॥
सोहं सोहं सुयश सुढार। उलट परै तैह यह मत सार॥
जन्म जन्म को मिटै कलेश। धरनी दास करत उपदेश॥10॥

29.

भल तुम भल तुम भले दयाला। जिन किरिया कलिकाल कृपाला॥
भल तोरि सुरति मुरति भल नाँव। बार बार वहि वारन जाँव॥
सब पूरन सँपूरन कला। जित देखोँ तित भलही भला॥
धरनी जप, तप, मन बच करना। मेटह जरा मरन दै सरना॥11॥

30.

चलु मन चलु संतन पगु धारी। बार 2 का गुनत अनारी॥
दर्शन परस, दया, सतिभाव। करम भरम सब अगिन जराव॥
लै सरधा-जल चरन खटारु। लोक लाज कै चादर फारु॥
भव सागर सत-संगति नाव। पँवरि 2 कोउ पार न पाव॥
राम नाम निज गहु करु आरा। धरनी सोई उतर भव पारा॥

31.

मैं निर्गुनिया गुन नहि जाना। एक धनी के हाथ बिकाना॥
सोइ प्रभु पक्का मैं अतिकच्चा। मैं झूठा मेरो साहेब सच्चा॥
मैं आधा मेरो सोहेब पूरा। मैं कायर मेरो साहेब शूरा॥
मैं मूरख मति सो प्रभु ज्ञाता। मैं किरपन मेरो साहेब दाता॥
धरनी मन मानो एक ठाँव। सो प्रभु जीओ मैं मरि जाँव॥

32.

सो पुर गुरु मोहि देहु दिखाय। करहु दया जनि धरहु दुराय॥
धु्रव प्रह्लाद आदि तव भाया। नारद शुकदेव सुख पाया॥
रामानन्द, नाम, जयदेऊ। गोरख, व्यास, कबीर घनेऊ॥
तुलसी, रवीदास, सदनाऊ। मीरा, पीया, कूबा छाऊ॥
दादू, नानक, सैना गाँव। धरनी मन माना वहि ठाँव॥

33.

जो तोहि पंडित मुक्तिको चाव। अजहूँ हरिको दास कहाव।
पढ़ि पढ़ि गुनि गुनि पुनि पुनि आव। कथि कथि बकि बकि पार न पाव॥
दृढ़ करु माला अतलके दृढ़ाव। सब जीवनपर दया जनाव॥
तृष्ण तामस तोरि लडाव। हिय हरषित गोविंद-गुन गाव॥
भव-सागर सत-संगति नाव। धरनी बहुरि न ऐसो दाव॥

34.

धिग जीवन जो छोड़यो राम। राम-भजन संपूरन काम॥
दुख सुख संपति विपति अधार। भव सागर कँह पार उतार॥
धरती उलटि पलटि जब जाय। तबु न विसारो त्रिभुवन राय॥
अथवा सरग टूटि जब परे। तबहुँ न हरि-व्रत जियसाँे टरै॥
जो जिय जाय देह होइ खेह। तो न तजोँ निज-राम-सनेह॥
मन वच क्रम गुइ धरनीदास। संत-चरन जिनको विश्वास॥

35.

दूर न भाई खसम खोदाय। है हाजिर पहिचान न जाय॥
ढूंढो अपने हिय आजूदा। बैठा मालिक महल मजूदा॥
जाको साहब दे तौफीक चार पियाला कर तहकीक॥
महरम कोइ मिलै जो यार। पलमें पहुँचावै दर्बार॥
धरनी वख्त-बुलंदी सोय। जाकी नजर तमाशा होय॥

36.

मैं जानोँ सब रामानन्दी। काको निन्दी काको वन्दी॥
सन्यासी प्रगटे दश नाम। दश शाखा जुरि एकै ठाम॥
कहै विराग संप्रदाचारी। एकै घरकी चार दुवारी॥
पंथी धरत पंथ को नाँव। पंथ अनेक एक है गाँव॥
और कहाँ लग कहाँ घनेरो। नदिया एक घाट बहुतेरो॥
प्रभुता-कारन सब अरुझाना। प्रभुको भरम कोउ कोउ जाना॥
ममगा मारि भजन करि लीजै। धरनी दोष काहु नहि दीजै॥

37.

सोई मुसल्लम मूसलमाना। जापर रहम करै रहिमाना॥
दर्दकि दाढ़ी दिल बिच धरै। छुछुरा झूठ काटि दुरि करै॥
ततकी तस्वर नियत नमाजा। रोजा करै विराना काजा॥
मन मुर्गा अव्वल तकबीर। करै कँदूरि बोलता पीर॥
अन्दर बैठा पढ़ै कोरान। धरनीदास तासु कुर्बान॥

38.

सो हिन्दू हरिके मन भाव। हद परिहरि अनहद चित लाव॥
कर्म मर्म दोउ कान छाव। तृष्णा तुर्क न छुवै छुवाव॥
प्रतिदिन एकै तिरथ नहाय। दूजो तिरथ मरे नहि धाव॥
पूजा करै आतमा जानी। आथर आगि न पानी॥
अलख पुरुष अभि-अंतर घाव। धरनी परसैतिनिके पाव॥

39.

मेरे तुमहिँ और ना कोय। वहुविधि कहत सुनत नर लोय॥
तव विश्वास दास मनमान। युग 2 भक्त वछल को वान॥
अवरनते ना मेरो काज। छोड्यो कुलहिँ विसारयो लाज॥
धरनी जन्म हारि भो जीति। मन वच कर्म हद परतीति॥

40.

हरि को दास कहा मुख खोलै।टेक।
अभि-अंतर जाके धुनि उपजै, बाहर काहे को बोलै॥
मूलके फूल सुवासहिँ लागे, चढिगो प्रेम-चँडोले। जैसे मधुवन केतकि काटै, वध्याने इत उत डोलै।
जब खोलै तव वादन बोले, बोले नाम अमोले। कै उचरै कछु साधुकि वानी, निःशंको हरि बोलै।
रज-गुन तम गुन दूनो त्यागे, सात गुन मारग डोलै। धरनी जो जन यह मति जान्यो, पढ़त न कलमत।

41.

जब लगि परम तत्त्व नहि जानै।टेक।
तब लगि भरम भूत नहिँ भाजै, कर्म कीच लपटाने॥
सहस नाम महि कहा भयो मन, कोटि न कहत अधाने। भूले भरम भागवत पढि 2, पूजत फिरत पषाने
का गिरि-कंदर मंदर माहीँ, मूरख खोजि निशाने। काह जो वर्ष हजार रहो तन, अंत वहुरि पछिताने
धनी कवीश्वर सरस्वती अरु, रंक होय यह राने। प्रेम प्रतीति अमिय परिचय बिनु, मिलै न पद निर्वान
मन वच कर्म सदा निशिवासर, दूजो ज्ञान न ध्याने। धरनी जन सत गुरु सिर ऊपर, भक्तवछल भगवाने

42.

जिन जिन रमता रामहिँ गाओ।टेक।
जीवन मुक्त महाशय बाढ़ो, अवरन पार चलाओ॥
रमताराम जपत जयदेवहिँ विविध विमान चढ़ाओ। गोरखनाथ सनाथ भये जब, रमता दर्शन पाओ॥
रमता राम निरखि जिन नयनन, नामदेव पग पजै पुराओ। रमताराम कबीर कृपा भई, तब कलिभक्त दृढ़ा।
रमताराम चतुर्भुजके चित, ममता तपत बहाओ। संत अनन्त देह धरि आओ, दूजा नहि ठहराओ॥
रमताराम भक्तजन तारयो, चारोँ युग चलि आओ। धरनीदास दया सतगुरुकी, शरन शरन गोहराओ॥

43.

भौ दिल दोस्त हमारा राजी।टेक। याहि महल में बस एक काजी॥
अरु कबहिँ न झोटि मुँडावे॥
हजकी हाजत जाहि न होई। कछुवे राय पियै नहि सोई॥
जाके नहि पेराइन पागा। सो तो महज दिगम्बर नागा॥
जो जो हुकुम करै सोहाई। वैगर हुकुम करै नहि कोई॥
नहि सो पढ़त किताब कोराना। तस्वी नहि फेरत ना दाना॥
नहि वहि रोजा नियत नमाजा। सो तो बड़ो गरीब नेवाजा॥
मन तू करहु वन्दगी ताहा। नही पीर पैगम्बर जाहा॥
कहत धरनीदास बेचारा। सो तो हिन्दू तुरुकते न्यारा॥

44.

मन भजि ले पुरुष पुराना। जाते वहुरि न आना जाना॥
सब सृष्टी जाको ध्यावै। गुरु गम विरलै जन पावै॥
निशिवासर जिन मन लाया। तिन प्रगट परम पद पाया॥
नहि मातु पिता परिवारा। नहि बंधु सुता सुत दारा॥
वह घट घट रहत समाना। धन सो जो ताकँह जाना॥

चारोँ युग संतन भाखी। तेहि वेद कितेबा साखी॥
प्रगटो जेहि पूरन भागा। सो भैगो सोन सोहागा॥
तेहि निकट निरंतर बासा। तँह जग मग जोति प्रकाशा॥
धरनी जिन दासन दासा। करु विश्वंभर-विश्वासास॥

45.

अब गर परल प्रेम-रस फाँसी। लोक सुयश करु भावे हाँसी॥
मनुवा मगन हरषि हिय नाचै। तन तँह डोलै जँह प्रभु जाँचै॥
तन परु परवश पर न बसाई। समुझि न परत हरुअ गरुआई॥
फाँसी-रूप वरनि ना जाई। जँवर कहाँ जग नहि पतियाई॥
धरनी कोइ कोइ जन अनुरागी। तिनहि जान जिन ग्रीवा लागी॥

46.

अबके नीके पँडे आये।टेक॥
बिनु परपंच परिश्रम थोरे, बहुत पदारथ पाये॥
संसकार पुरविलको प्रगटयो, सो अत आनि जगाये। तुलसी कंठ तिलक माथे धरि, हरिके दास कहाये।
मोह मायके बंधन टूटे, संत-शहर घर छोये। विसरो वैर सकल जीवनते उर अनुभव पद गाये॥
ब्रह्म अगिनमेँ जरि वरि बीते, जँहलोँ कर्म कमाये। वेदलोकते तिनका तोरो, शब्द निशान बजाये॥
धरनी पुलकि जहाँ गुरु अपनो, हस्तक मस्तक नाये। दीन दयाल कृपाल कृपानिधि, कर गहि कंठ लगाये॥

47.

एक धर्नी धन मोरा॥टेक॥
काहूके धन सोना रूपा, काहुहिँ हाथी घोड़ा। काहू के मनि मालिक मोती, एकधनी धन मोरा॥
राज न रहै जरै ना अगिनिहि, कैसहुँ पाव न चोरा। खरचत खात सिरात कवहि नहिँ, घाट वाट नाहि
नहि संदूक न भुंइ खनि गाड़ोँ, नहिँ पट घालि मरोरा। नयनन ओट पलकुनहि नाखाँ, साँझ दिवस निभोरा॥
जब धनले मनि वेचन चाहे, तीति हाट टकटोरा। कोइ वस्तु ना वाही जोगे, जो मोलवहुँ सो थो
जाधनते जन भये धनी वहु, हिंदू तुरुक करोरा। सो धन धरनी सहजे पायो, केवल संत-निहोरा॥

48.

कोटि उपाय करो जो कोई, राम न छोड़ो भाई।
वेद लोक की शंक न मानो, हँसो कि करो बड़ाई॥
बहुत दिनते खोजत 2, मूलवस्तु एक पाई। अब मन वच क्रम ताहि तजोँ नहि, रामै राम दोहाई॥
एक ओर मेरो प्रान पियारो, दूजि ओर दुनि आई। साँचा नाता तँह मन राता, झूठी जगत सगाई॥
चंद सुरुज जँह मनिन अगिन वरु, दह दिसि जोति सोहाई। मुक्ता पाँति झरै निशिवासर, मुनिमन होंसलो
गगन मंडल आ सन अविनाशी, प्रेमलेजु लट जाई। धरनी कहत गहतजन कोइ 2 जेहि गुरु जुगुति

49.

चारो युग चतुरानन गाओ, राम भजन व्यवहारा।टेक।
राम नामके कहते 2 वहुत पतित वलु तारा॥
ब्राह्मण क्षत्रिय कोटि जुरे जँह, पांडव यज्ञ पसारा। तँह भइ भक्त सुपच मर्यादा, परगट कुल खंडार।
काशीवासी सब पंडित मिलि कीन उपाधि विचारा। तँह पुनि राम-भक्ति महिमा, धनि रविदास चमारा॥
नरहरि विदुर जन्म नीचे कुल, नेकु न नेम अचारा। वेश्याको अवगुन विसराओ, कियो न वर्न विचारा।
सेना नाई सदन कसाई, भरो सुयश संसारा। ऐसो राम विसारि अंधनर, बहत नरक जल-धारा॥
अकुल कुलीन भक्तजन तारो, कँहलोँ करोँ शुमारा। धरनीदास दास दासनको, बारंबार पुकारा॥