मारु / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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175.

योगि एक सत गुरु शब्द लखावल हो।
जिन योगि भवन गुफा मठ मांतर जगजग जोती हो।
वाहि जो जोति स्रवंत सदा मनि मोती हो।
उहै मोति हरिजन हंस अहार,
सेहुरे हंस विरले बसहि संसार।
धरनि हरषि हिय हरि-गुन गावल हो॥1॥

176.

मनुष जनम अस, परम पदारथ हो।
सेहु जनि खोवहु, अंध अकारथ हो।
कर्ण कहाँ, दुर्योधन, भीम, व पारथ हो॥
जिन अस कियउ कठिन मह-भारत हो।
दिनचारी चेतहु चित्तहिं परमारथ हो॥
बिनु एक राम जिवन धन कछु नहि स्वारथ हो।
धरनि समुझि हिय कहत यथारथ हो॥2॥

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