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कांधरा / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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232.

अब मोहि जानि परो दिन नीको।
नयनन देखु दरस सतगुरु को, श्रवन सुनो संदेशो पीको।
तुलसी माल विराजै उपर, भाल धरो हरि-मंदिर टीको।
साधु संगति पंगति मिलि बैठे, छूटि गवो बहुबंधन न जीको।
भेटे भेद भरम भहरानो, वेद लोक मन भैगो फीको।
उपजत उर आनंद अग्नि ज्यों, पुनि पुनि पूट परै जनु घीको॥
नख सिख अंग विषय-विष उतरो, रोम रोम रस भरो अमीको।
धरनी तासु चरन चित लाओ, जो साहेब असमान जमींको॥1॥