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बिटिया के बाप-मताई / दुर्गेश दीक्षित

Kavita Kosh से
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जब सैं मौड़ी भई माते कमैं, सूख ठठेरौ हो रए,
उदक परैं, रातें ब नींद न सुख की सो रए।
ईसुर तुमनें बुरई बिदै दई, कओ कीसैं कन जाबैं,
घर में नइयाँ चून चनन कौ, कैसें ब्याव रचाबैं।

ऊसई घर में तंगी परबै, दो-दो दिन के फाँके,
कोउ नई सूदै बात करै, कै को तुम आहौ काँके।
दानौ नइयाँ, मुलकन केरे, गोऊँ-चना चानें ते,
ब्याज झार नई पाऔ पैल कौ, साव बुरई मानें ते।

हराँ-हराँ स्यानी भई बिन्नू, घानन लगीं कँदेला,
कबऊँ-कबऊँ ओरी के पैरै, चूरा और पटेला।
भूकि भली बने रए माते, ऊ बिटिया के काजैं,
अब जी खौं गंठ्यावन बिदी जा-बुरए करें चाय साजै।

काँसैं ल्यायँ रुपइया उनसौं, ऐंठें लरकाबारे,
ऐसे भोरे-भारे उनकैं, झक नई पाबैं द्वारे।
जी की थानक राखी बिटिया, बा प्रानन से प्यारी,
तनक देर के काजैं कैसँउ, करी न जाबै न्यारी।

माँगे-सस्ते बैंच-खर्च दए, अपने दोई बैला,
नइँतर साव कका रए उनखौं, कैउ दिना के टैला।
गानें धर दओ कुआ-कटीं कै, जोर-जार कैं भन्ना,
पूरी करी माँग समधी की, तौऊ न जाबैं मन्ना।

अपनी प्यारी सामलिया के, पीरे हाँत करे फिर,
ताते-खारे असुवा जाबैं, टप-टप आँखन सैं गिर।
मौं ढाँकें घूँघट में रो रई बे मातैन बिचारीं,
अरे और की हो गई मौड़ी, आँखें करीं फरारीं।

अपने आँगन में खेलत ती, भरत हती किलकइयाँ,
ऊके नन्ना फिरत रात ते, लएँ सबरे में कइयाँ।
अरे और की हो गई मौड़ी, अब कओ कबैं दिखानैं,
भूँक-प्यास नइँ आँसी साँसऊ, इँ मौड़ी के लानें।

रो-रो कै रईं अब कओ कैसें, इऐ गरे सैं छोड़ैं,
करैं फिरैं नेचौ मौ माते, सेत पिछौरा ओड़ैं।
बिदा करी बिटिया की उन्नें, घर में नइयाँ खैबे,
अब कऔ कैसी करें बिचारे, ठौर बचो नई रैबे।

खाबे नईं भरपेट मिलै उर, ऊ बिटिया खौ हीड़ैं,
कै नइँ कछु काऊ सें पाबें, भीतर उठैं भपँूडै़।
लगो घुनीता-सौ भीतर हुन, कोउ नइँ धीर धरइया,
बेई बुढ़ापे की मौड़ी ती, खेबेवारी नइया।

नाज कितैं सैं रओ तो घर में, नइँ रई गड्इ-कुपरिया,
उठ नइँ पायँ सैं परे सैं कैसऊँ, डकरा और डुकरिया।
पानी तक नई दैबेवारो, तलफ-तलफ कै मर गये,
माते उर मातैन बिचारे, हीड़त-हीड़त घुर गये।

उनकी प्यारी बिटिया उनखौं, मिली न मरती बैराँ
ऊके बिना उनन के काजैं, सूनऊ-सूनौ गेराँ।
उऐ पठैबे भरी न हामी, बुरए करे बतकारे,
मीत कड़े पड़सा के कोरे, बिटिया के घर बारे।