भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बिरही कौ बसकारौ / गुणसागर 'सत्यार्थी'

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:03, 28 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatBundeliRachna}} <poem> पर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

परचा रइ पुरबइया तन-मन में आग,
सैरे की तान लगै ईसुर की फाग।

बरत नए गाबे नें झुलसा दए गाँव,
दहक उठे अबा घने मेघन की छाँव।
जोगी-बैरागी के डगमग भए पाँव,
अलबेली आगी कौ अलबेलौ दाँव।

कौसिक से रिसी आज गा रए विहाग,
मियाँ की मलार लगै ज्यों दीपक राग।

धरनी तिलोत्तमा ने कर लऔ सिंगार,
मुसकाए नारायन, देवता बलहार।
अरुन अगन मुख सोहै-सूरज सी झार,
गौरा-सुत देवतन के सेना आधार।

गरबीले बाहन की बानी दई आग,
बदरा के हिऐ पैठ गूँजी बन राग।

ज्वालामुख पर्वत ज्यों फूट परौ आज,
लरम नए पत्तन पै आगी कौ राज।
जग्ग-हुवन करबे खों है साकिल नाज,
आहूती खेतन में दई सज कें साज।

मित्र बरुन भूले सब तप औ बैराग;
तखतन घृताची खौं उमड़ौ अनुराग।

गरमी सें रार रोर कामरूप काम,
इन्द्र-धनुष मोर-मुकुट धर लए घनश्याम।
रिसी-मुनी देवता लों तलफें निज धाम,
ई सें तौ सियरौ गऔ जेठमास घाम।

कन-कन में पैठ गई जीवन की आग;
सैरे की तान लगै ईसुर की फाग।