बसन्त कौ प्यार / गुणसागर 'सत्यार्थी'

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क्वाँरी मन-बगिया कोयलिया कूक रई,

बिरछन नें कर लऔ सिंगार,
झूमे नए फूलन के हार।

दूर हरी खेतन में बगरी है भाँग,
गंध झरत केवरे सें झूम रई डाँग,
होंन लगे राग-रंग आ गई बहार,
नदिया की निरमल भई धार।

अनहोंनी बात भई सोंने में बास,
धरती पै होंन लगो महुअन कौ रास।
नाँनीँ रस-बुँदियन की बरसै फुआर,
रूपे-सौ हो गऔ सिंसार।

पी-पी कें बैर चली बहकी है चाल,
महँक उठीं मेंड़ें सब हो गईं बेहाल।
कलियाँ रस बगरा कें मस्ती रइँ ढार,
पाँखन में मुन्सारे पार।

सेंमर सज आऔ है टेसू के संग,
बौराये आम देख इनके सब रंग।
बनी-ठनी सकियँन सँग ठाँड़ी कचनार,
पीर करै हिय में तकरार।

सरसों में गोरी कौ कंचन भऔ आँग,
भरी नई बालन नें मोंतिन सें माँग।
सोभा लख आसमान धीरज ना धार-
बगरौ है धरती के थार

राधा नें रूप सजौ सोरउ सिंगार,
कुंजन में नन्दन बन हो रऔ बलहार।
काए ना कान्हा फिर लेबें औतार?
धरती में इतनों है प्यार।

क्वाँरी मन-बगिया में कोयलिया कू क रई,

बिरछन नें कर लऔ सिंगार,
झूमे नए फूलन के हार।

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