भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सेब का पेड़ / पवन चौहान

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:22, 8 अगस्त 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पवन चौहान |अनुवादक= |संग्रह=किनार...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(1)
आज सुबह से निहार रही है वह औरत
जड़ से उखड़े सेब के पेड़ को
जो था लदकद कच्चे हरे सेबों से
रो रही है वह औरत
जांच रही है उसकी टहनी से लेकर
जड़ तक का हर हिस्सा
बारीकी से
अपने दिमाग को खुफिया तंत्र से जोड़ती
कर रही है तसल्ली
तलाश रही है वह हर सुराग
जिसका हाथ रहा है पेड़ को
उसकी जमीन से अलग करने का
    
(2)

यह उसके लिए मात्र कमाई करने वाला
सेब का पेड़ नहीं था
था उसके सुख-दुख का सच्चा साथी
यादों को सहजने का जरिया
उसके अतीत का एक सुनहरा पन्ना
बेटे के जन्मदिन पर
पिता ने दी थी उसे
उसकी जमीन
ताकि बचा रह सके अस्तित्व उसका
जुड़ा रह सके वह अपनी जमीन से ताउम्र
पीढ़ियों तक

बेटे के विदेश में बसने के बाद
रखती रही वह इसके फल सहेजकर
हर वर्ष
एक आस लगाए

वह आएगा इस वर्ष
जरुर लौटेगा वह
ममता की छांव तले
खूब भाते रहे इस पेड़ के फल उसे
मां की अंगुली छूटने से पहले तक ही
अब हर बार रखे-रखे सूख जाते हैं वे
मां के मन और सपनों की तरह
नहीं पहुंचता उसका बेटा
इस साल भी

अब बेटे के पांव में निकल आए थे पंख
और उसने भर दी थी खूब लंबी उड़ान
इस पेड़ की नाजुक टहनी से ही
टहनी को तोड़ते हुए

सोचती है मां
अच्छे ही थे हम बिना सेब के
इन सेबों ने कर दिया परिवार को दूर-दूर
इनकी कमाई खा गई हमारी सारी खुशियां
धीरे-धीरे बिना कोई आवाज किए

आज रोती है मां दहाड़े मार-मार
आंखों को
सेब की तरह लाल करती हुई
दिन-रात