Last modified on 8 अगस्त 2016, at 03:40

कलंक / पवन चौहान

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:40, 8 अगस्त 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पवन चौहान |अनुवादक= |संग्रह=किनार...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

यूँ ही नहीं धुल जाता कलंक
पश्चाताप के जल से
कुकृत्यों का बोझ
कर देता है बौना
क्षण भर की भड़ास
खड़े कर देती है असंख्य सवाल
पलकों का झुकना
हर कदम पर जमीन से बातें करना
गलती का अहसास ही सही
परंतु दामन पर जड़ा यह काला धब्बा
साथ चलता है ताउम्र
साए की तरह
हर पल की मौत बनकर।

कविता क्षण भर का जोश
शायद ऐसे ही टूटता है हर सपना
रिश्तों का बंधन, हर अरमान
टंग जाती है सूली पर
विश्वास की डोर भी
सहर से शाम तक का सफर
पल में ही तय हो जाता है
धरती का रेगिस्तान होना
शायद शुरु होता है यहीं से ही
प्यासी नजरों का यूँ सिमट जाना
लबों की खामोशी की लंबी पारी
पसार देती है अनजान डर की सुगबुगाहट
शायद यहीं से मरती है
तेरे मेरे आंगन की बहार भी

जोश के मरते ही
मर जाता है बहुत कुछ
और पीछे रह जाता है सिर्फ
एक कड़वा एहसास
कुछ जले हुए ख्वाब।