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शहर में मैं / पवन चौहान

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अस्त-व्यस्त
तेजी से भागता
पर हाँफता नहीं
नाचता-डोलता, मुस्कुराता
पर रोता नहीं
संस्कारविहीन, तोड़ता
जोड़ता नहीं
स्वार्थ की कसौटी पर डोलते रिश्ते
बिकते सपने, मरते सपने
अनजान डगर
भीड़ बहुत भीड़
दुगुनी, चौगुनी---
न जाने कितनी
चारों तरफ फैली हुई
भावानाओं, आकांक्षाओं, इन्सानियत की लाशें
उन्हे रौंदते अनगिनत कदम
खून के धब्बे
जो पहचान में नहीं
दफन होती असंख्य चीखें
आंसुओं के सैलाब
चुभता ढेर सारा षोर
सनसनाती तलवारें, दनदनाती गोलियाँ
और फिर उसी में गुम होती
सच्चाई की आवाज भी

यह मेरा शहर मरकर भी जिंदा है
और मैं इसके तालमेल को
खुली आंखों से देख रहा हूँ
कब से देखता चला आ रहा हूँ
तालमेल बिठाने के चक्कर में
दांत न होते हुए भी
बड़े-बड़े दांत निकाल कर हँस रहा हूँ
कान सिकोड़ रहा हूँ
जुबान सिल रहा हूँ

मैं शहर में हूँ
गाँव वालों के लिए यह
फक्र की बात है
और उनके फक्र में मुझे फक्र है
इस फक्र फक्र में
मैं हो गया हूँ शहरी
पूर्ण शहरी
औरों की तरह

तुम कल कर रहे थे जिद माँ से
शहर के लिए
आ जाओ तुम भी पगडंडियाँ छोड़
खुली सडकों पर
मैं तुम्हे विश्वास दिलाता हूँ
देर नहीं लगेगी तुम्हे बनने में शहरी
मेरी तरह।

दादी ने जो बताया था
वह एकदम सच था
चकचास करती है
खूब सारी मेहनत
सुबह-शाम
तिनका-तिनका करके इक्ट्ठा
पेड़ से झूलता हुआ उसका घर
गाता है हवा संग मीठे गीत
मेहनत को उसकी करता सलाम

सदियों से बनाते आए
उसके पूरखे
गहरे श्रम से
अपनेपन की एक खास जगह पर

वह नहीं भूली अपनी विरासत
अपनी परंपराएं
अपने संस्कार
माँ से सीखे हुनर में
घोलकर मेहनत के रंग
वह टांग देती है उसे
एक पतली टहनी में
नई आशाओं की पालकी संग


हमने भी बना लिए हैं आशियाने
आधुनिकता से संपन्न
मिट्टी से उसकी सलेटों को अलग करते हुए
बारी-बारी
संस्कारों की कब्र पर
सजाते हुए अपनी नींव

दादी बताती रही सब
बहुत बर्शों तक
अपने दुखों को करती रही हल्का
अब हम भी बड़े हो गए हैं
पर दादी चुप है

परम्पराएं खामोशी से मिलती जा रही हैं
पुरखों के साथ मिट्टी के ढेरों में वापिस
लिए खाली हाथ।

नोट-चकचास अर्थात बया (हि0 प्र0 के मण्डी जिला की स्थानीय बोली में बया को चकचास कहा जाता है।)