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किनारे की चट्टान (कविता) / पवन चौहान
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समुद्र की लहरें
हटाना चाहती हैं किनारे की चट्टान
करना चाहती हैं अपना विस्तार
तीव्रतम वेग से टकरातीं हैं हर बार
भिड़कर चट्टान से
बिखर जाती हैं छोटी-छोटी बूँदों में
जैसे टूटता है कांच टुकड़े-टुकड़े
कुछ हो जाती हैं गुम यहाँ-वहाँ
किनारे की रेत पर
षेश फैल जाती हैं चट्टान पर लावारिस-सी
भिड़ंत से खिलता है लहरों का यौवन
पाती हैं असीम सौंदर्य
इसके असूत खड़ी चट्टान
सहती है सब हँसकर
जैसे बच्चे की नादानी सहती है माँ
किनारे पर बैठा कवि
देखता है सब
लहरों का उन्माद
चट्टान की सहनशीलता
समुद्र से टकराने का हौंसला
उसकी दृढ़ता, आत्मविश्वास
वह भी होना चाहता है चट्टान
किनारे वाली चट्टान