भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आबेॅ की होतै / नवीन निकुंज
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:17, 12 अगस्त 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नवीन निकुंज |अनुवादक= |संग्रह=जरि...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
देवराज
जबेॅ-जबेॅ तोरोॅ आसन डोललौं
तोहें भेजलोॅ छौ
कोय अप्सरा-धरती पर
पुरखा-दर-पुरखा सेॅ
यहेॅ सुनतेॅ ऐलोॅ छियै हम्में
आखिर
तोहें कबेॅ तांय बैठलोॅ रहवौ
हेन्है केॅ कुण्डली मारी।
जरा उल्टियो ताकोॅ
संभलोॅ
धरती पर
रथोॅ के फहरैतें धजा
हमरोॅ लोगोॅ के
जोत सेॅ चमकतें सरंग
ओकरे वेगोॅ सेॅ काँपतें चैवाय
आरो ठनके रं बाजतै
कवच-कुण्डल सेॅ
छिनमान बिगुले जकां
हों
सब्भे आवी रहलोॅ छौं तोरे दिश
हे देेवराज।