भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इतनी सी रौशनी / अशोक कुमार पाण्डेय
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:41, 13 अगस्त 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अशोक कुमार पाण्डेय |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
रात में ढलती जा रही उस उमस भरी शाम
कुछ नहीं माँगा उस आठेक साल के बच्चे ने
टूटते हुए तारे को देखकर
बस कुतरते हुए चाकलेट चुपचाप देखता रहा
मन्नतों में जुड़े तमाम हाथों को
पता नहीं किसी और ने देखा भी या नहीं
कि ठीक जिस क्षण टूटा वह तारा
वह मुस्कराया था
मेरी पुरानी आँखों ने पढ़ा कुछ उसमें
पता नहीं कहा कि अनकहा
पर मुस्कराईं वे भी उसके साथ
मानी जो भी हो
मानी हो न हो
ख़ूबसूरत होती ही है किसी बच्चे की मुसकराहट
किसी भी इन्द्रधनुष से ज़्यादा रंग होते हैं उसमें
किसी भी टूटते तारे से कहीं ज़्यादा उम्मीदें
अँधेरे में डूबी उस कस्बाई शाम
उस सस्ते से होटल की छतपर
फिल्मी गानों और मानस के बेसुरे पाठ के बीच
बस इतनी सी रौशनी थी...