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मैं फ़िलवक्त बेचेहरा आवाज़ों के साथ भटक रहा हूँ / अशोक कुमार पाण्डेय

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दिल्ली के जंतर-मंतर पर खड़ा हूँ
और वहाँ गूँज रही है अमरीका के लिबर्टी चौराहे से टाम मोरेलो के गीतों की आवाज़

मैं उस आवाज़ को सुनता हूँ दुनिया के निन्यानवे फ़ीसद लोगों की तरह और मिस्र के तहरीर चौक पर उदास खड़ी एक लड़की का हाथ थामे ग्रीस की सडकों पर चला जाता हूँ नारा लगाते जहाँ फ्रांस से निकली एक आवाज़ मेरा कंधा पकड़कर झकझोरती है और मैं फ़लस्तीन की एक ढहती हुई दीवार के मलबे पर बैठकर अनुज लुगुन की कविताएँ पढ़ने लगता हूँ ज़ोर-ज़ोर से

मैं शोपियाँ के सड़कों पर एक ताज़ा लाश के पीछे चलती भीड़ में सबसे पीछे खड़ा हो जाता हूँ और कुडनकुलम की गंध से बौराया हुआ उड़ीसा की बिकी हुई नदियों के बदरंग बालू में लोटने की कोशिश करता हूँ तो एक राइफल कुरेदती है और मैं खिसियाया हुआ मणिपुर के अस्पताल में जाकर लेट जाता हूँ भूखा जहाँ श्योपुर के जंगलों में जड़ी-बूटी बीनती एक आदिवासी लड़की मेरे सूखे होठों पर अपनी उंगलियाँ फिराती हुई कहती है – भूख चयन नहीं होती हमेशा, ली गयी भूख अपराध है और दी गयी भूख देशभक्ति!

ठीक उसी वक़्त बिलकुल साफ़ शब्दों में गूंजती है एक आवाज़ – जेल जाने के लिए अपराध ज़रूरी नहीं होता न भूख के लिए ग़रीबी. ज़रूरी तो वीरता पदक के लिए वीरता भी नहीं होती. यह जो पत्थर तुम्हारी आँखों में पड़े हैं वे मेरी योनि से निकले हैं. तुम्हें साफ़-साफ़ दिखेगा इन्हें हाथों में लो तो एक बार. मैं पूछता हूँ सोनी सौरी? तो झिड़कती हैं कितनी ही आवाजें – आत्महत्या नहीं की तुमने अभी तक और जेल में नहीं हो अगर तुम और कोई अपराध नहीं तुम्हारे सर पर तो सिर्फ़ कायर हो तुम. जो अपराधी नहीं वे अपराध में शामिल हैं आज. यह जो माला है तुम्हारे गले में उसके मनके मेरे खेत के हैं तुम्हारे पेट में जो दाने हैं वे मैंने अपने बच्चे के लिए बचाकर रखे थे वह जो साड़ी लिए जा रहे हो तुम अपनी पत्नी के लिए वह सरोंग है सेना भवन के सामने खड़ी नंगी औरतों की. कौन जाने तुम्हारे भीतर जो बीमार सा गुर्दा है वह किसी अफ्रीकी का हो !

कितनी ही आवाज़ें छाने लगती हैं मेरे वज़ूद पर
कितनी भाषाओं के शब्द कसने लगते हैं मेरी गर्दन
मैं अपने कानों पर हाथ रखना चाहता हूँ तो वे कस जाते हैं होठों पर.

लहू-लुहान मैं लौटता हूँ कविता की दुनिया में
जहाँ एक लड़की कहती है मुझे तुम्हारी आवाज़ से मोहब्बत हो गयी है
एक दोस्त कहता है बड़े स्नेह से कितने दिन हुए शराब नहीं पी हमने साथ में

मैं उनकी ओर देखता हूँ अवाक और वे दया भरी निगाह से मेरे उलझे बालों में उँगलियाँ फिराते हैं. आले की तरह रखते हैं मेरे सीने पर हाथ और कहते हैं देखो कितनी सुन्दर चिड़िया आई है इस बार सीधे फ्रांस से ... और कितने सालों बाद इस बसंत में पीले-पीले फूल खिले हैं हमारे आँगन में. उठो अपने ज़ख्म धो डालो शहर में गुलाबी उत्सव है कविता का और दिल्ली में तो मदनोत्सव अब बारहमासी त्यौहार बन गया है. इस बार आना ही होगा तुम्हें डोमाजी खुद अपने हाथों से देंगे इस बार पुरस्कार. मैं घबराया हुआ अपनी माचिस ढूंढता हूँ तो वह लड़की बहुत क़रीब आते हुए कहती है देखो न कितना प्रेम है चारों ओर और कितनी मधुर अग्नि है इन उन्नत उरोजों में. इन दिनों हृदय का अर्थ उरोज है , कान में कहता है मित्र पूरी गंभीरता से.

मैं भरी महफ़िल में चीखना चाहता हूँ
पर पिछली गली से निकल आता हूँ चुपचाप

वहाँ एक सांवली सी लड़की कहती है मुझसे – मैंने फिर बदल दिया है अपना बयान और यहाँ खड़ी हूँ कि महफ़िल ख़त्म हो और वह लौटकर मुझे पैसे दे बचे हुए मुझे अपने पिता की कब्र पर ताज़े गुलाब चढ़ाने हैं और न मैं अहमदाबाद जा सकती हूँ न अमेरिका आप जानते हैं न इस महफ़िल से बाहर जो कुछ है सब जेल है.

मैं पूछता हूँ – भायखला?
तो कोई चीखता है – अबू ग़रीब!