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तुझे कैसे भूल जाऊँ / दुष्यंत कुमार
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अब उम्र की ढलान उतरते हुए मुझे
आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊँ।
गहरा गये हैं खूब धुंधलके निगाह में
गो राहरौ नहीं हैं कहीं‚ फिर भी राह में–
लगते हैं चंद साए उभरते हुए मुझे
आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊँ।
फैले हुए सवाल सा‚ सड़कों का जाल है‚
ये सड़क है उजाड़‚ या मेरा ख़याल है‚
सामाने–सफ़र बाँधते–धरते हुए मुझे
आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊँ।
फिर पर्वतों के पास बिछा झील का पलंग
होकर निढाल‚ शाम बजाती है जलतरंग‚
इन रास्तों से तनहा गुज़रते हुए मुझे
आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊँ।
उन निलसिलों की टीस अभी तक है घाव में
थोड़ी–सी आंच और बची है अलाव में‚
सजदा किसी पड़ाव में करते हुए मुझे
आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊँ।