भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

निर्जन साक्षर / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:10, 21 अगस्त 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जीवनानंद दास |अनुवादक=समीर वरण नं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम वह सब नहीं जानती-नहीं जानने पर भी
मेरे सारे गीत तुम्हारे लिए हैं,
जब झर जाऊँगा हेमन्त के सर्द झोंके में-
रास्ते के पत्ते की तरह तब भी तुम
मेरी छाती पर सोयी रहोगी?
गहरी नींद के घर तृप्त होगा
तुम्हारा मन!
तुम्हारे इस जीवन की धार
क्षय हो जायेगी सब उस दिन?
मेरी छाती पर उस रात जमा था जो केवल शिशिर का जल
तुम भी केवल क्या यही चाहती थी?
उसका स्वाद तुम्हें शान्ति देता?
मैं तो झर जाऊँगा-पर अगाध जीवन
तुम्हें थामे रखेगा उस दिन भी पृथ्वी पर
-मेरे सारे गीत तुम्हारे लिए हैं।
हरे मैदान में घास में-
आकाश में बिखरा है नीला होकर आकाश-आकाश में,
इसके बावजूद जीवन का रंग और क्या खिलाया जा सकता है
वे सब छूने-पहचानने पर! एक अजब विस्मय
जो पृथ्वी में नहीं रहा-आकाश में भी नहीं उसका स्थान
नहीं पहचान पाता उसे समुद्र का जल
सारी-सारी रात नक्षत्र के साथ चलकर भी
उसे मैं नहीं पाता, किसी एक मानुषी के मन में
किसी मनुष्य के भीतर
वह चीज़ जो जीवित रहती है हृदय के गहरे गहवर में-
नक्षत्र से भी चुप किसी ख़ामोश आसन पर
एक मानुषी के मन में, एक मनुष्य के भीतर।
एक बार कहकर देश और दिशाओं का देव
गूँगा हो पड़ा रहता है-भूल जाता बतियाना,
जो आग जल उठी थी-उनकी आँखों के भीतर
बुझ जाते हैं, डूब जाते हैं, मिट जाते हैं।
फिर पैदा होती नई आकांक्षा, आ जाता नया समय-
पुराने नक्षत्रों के दिन बीत जाते
नए आ रहे हैं-जानकर भी
मेरी छाती से फिर भी क्या गिरा फिसल कर
किसी मानुषी के अन्दर?
जो प्रेम को पुरोहित बनकर जलाये हैं-छाती के भीतर
मैं वही पुरोहित हूँ-वही पुरोहित।

जो नक्षत्र मर जाते हैं, उसकी छाती की ठंडक
लगती है मेरी देह में-
जो तारे जगे हुए हैं उसकी ओर मुँह किये
जागी हुई हो तुम-
जैसा आकाश जल रहा है उसी तरह मन के आवेग से
जागी हुई हो-
कोई फै़सला सुनाती हुई तुम हो गई हो-निश्चिन्त।
होता रहता है आकाश के नीचे प्रकाश और अग्नि का क्षय,
कितने वर्तमान बन जाते व्यथित अतीत-
फिर भी छू नहीं गई तुम्हारी छाती को
जो नक्षत्र झरते हैं उसकी उदासी
जगी हुई पृथ्वी, उनकी घास-तुम्हारा आकाश।
जीवन स्वाद लिए जगी हुई हो तुम, क्या मृत्यु की व्यवस्था
तुम मुझे दे पाओगी?
अपने आकाश में तुम उष्प बनी रहती हो तब भी-
बाहरी आकाश के शीत में
नक्षत्र होरहे हैं क्षय,
नक्षत्र जैसे वक्ष-
गिर रहे हैं झर झर
क्लान्त हो-होकर-शिशिर कीतरह टप....टप!...
तुम नहीं जानती उनका स्वाद-
तुम्हें तो बुलाते हैं जीवन अबाध,
अगाध जीवन।
मैं जब हेमन्त की वर्षा में बरसूँगा,
रास्ते के पत्ते की तरह तब भी तुम
मेरी छाती में सोयी रहोगी?
गहरी नींद के घर में तृप्त होगा
तुम्हारा मन!
तुम्हारे इस जीवन की धार
क्षय हो जायेगी सब उस दिन?
मेरी छाती पर उस रात जमा था जो शिशिर का जल-
तुमने भी क्या केवल यही चाहा था-
उसका स्वाद तुम्हें शान्ति देता।
मैं तो हार जाऊँगा-पर अगाध जीवन
तुम्ळें रखेगा धरे उस दिन भी पृथ्वी पर-
मेरे सारे गीत तुम्हारे लिए हैं।