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कैंप में / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

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यहाँ वन के पास कैंप लगाये पड़ा हूँ।
सारी रात दखिनी हवा में
आकाश से चाँद की रोशनी में
एक घाई (नागालैण्ड में पाया जाने वाला विशेष हिरण) हिरनी की पुकार सुनाई देती है-
किसे पुकारती है वह?
कहीं हिरनों का शिकार हो रहा है,
वन में आज आये हैं शिकारी
मुझे भी उनकी गन्ध आ रही है,
बिस्तर पर पड़े-पड़े
नींद नहीं आती
बसन्त की रात।
चारों ओर वन का विस्मय,
चैती बयार
चाँदनी की रसीली देह,
एक घाई हिरनी पुकारती है सारी रात,
घने वन में जहाँ उजाला नहीं होता
वहाँ से नर मृग उसकी पुकार सुनते हैं,
टोह लेते हुए उसकी तरफ़ आते हैं।

आज इस विस्मय भरी रात में
उनके प्रेम की है घड़ी
उनके मन की सखी
वन की आड़ लिए-लिए
उन्हें बुला रही है चाँदनी में
गन्ध और आस्वाद में घुली
पिपासा की शान्ति के लिए।

कहाँ है बाघ की माँद यह भी नहीं याद,
हिरनों के सीने में आज कहीं नहीं ख़ौफ़
नहीं रही संदेह की धूप-छाँह,
केवल पिपासा है
केवल रोमांच।
आज जैसे हिरनी के रूप से चीते की छाती भी
विस्मृत है,
लालसा, आकांक्षा के साथ प्रेम स्वप्न साकार होते दिखाई देते हैं
आज इस बसन्ती रात में,
ऐसी है मेरी रात।
एक-एक आ रहे हैं हिरन वन का पथ छोड़कर,
पानी के शब्द को पीछे फेंककर एक नये आश्वासन की खोज में
दाँत-नख की बात भूलकर वन के पास
सुन्दरी के पेड़ तले-ज्योत्स्ना में,
जैसे मनुष्य आता है स्त्री की नमकीन गन्ध पाकर
वैसे ही वे आ रहे हैं।
उनका संकेत पा रहा हूँ
उनके पाँव की आवाज़ सुनाई पड़ती है
इधर चाँदनी में घाई हिरनी पुकारती है।

सो, नहीं पाता मैं
कि सोये-सोये बन्दूक की आवाज़ सुनता हूँ,
फिर बन्दूकें दग़ती हैं
चाँद की चाँदनी में घाई हिरनी फिर पुकारती है...

हृदय में अवसाद ने जन्म ले लिया है
यहाँ अकेला पड़ा रह-रहकर
गोली की आवाज़ सुन-सुनकर
हिरनों की पुकार सुन-सुनकर।

कल लौटेगी हिरनी
सुबह के प्रकाश में वह देखेगी-
आस-पास मरे पड़े हैं अपने सारे प्रेमी।
मनुष्यों ने उन्हें यही दिखाया और सिखाया है।
फिर मैं अपने भोजन की थाली में हिरन की गन्ध पाऊँगा
...फिर मांस खाना होगा ख़त्म?
...क्यों होगा?

इन हिरनों की बातें सोचकर मैं क्यों दुखी होता हूँ
किसी ने बसन्त की
विस्मय रात में मुझे भी तो बलाया नहीं, ज्योत्स्ना में-
दखिनी हवा में
उसी घाई हिरनी की तरह?
मेरा मन है एक नर मृग-
दुनिया की हिंसा
चीते की आँख का आतंक
सुन्दर चमकने की सब बातें भूलकर
क्या चाहा नहीं था मैंने भी कि खुद को तुम्हें सौंप दूँ?

मेरे हृदय का प्यार इसी मृत मृगी की तरह है।
मर कर धूल में सन गये हैं सारे मृग
और उसी मृगी की तरह तुम भी क्या बच नहीं गई थी?
जीवन की विस्मय रात
एक किसी बसन्ती रात में।

तुमने किससे सीखा।
मृत पशुओं की तरह अपना हाड़-मांस लेकर
हम लोग भी पड़े रहते हैं?
दुःख और वियोग लिए मृत्यु द्वार पर
उस मृत मृग की तरह पड़े रहते हैं
प्रेम साहस साध और स्वप्न के साथ जीवित रहना
बड़ा दुखता है,
मैं भी घृणा और मृत्यु
नहीं पाता क्या?

चलती है दुनाली।
घाई हिरनी पुकारती है,
मेरी आँखों में नींद नहीं
सोया रहकर नितान्त अकेला
आहिस्ता-आहिस्ता
भुला देनी पड़ती है
बंदूक और आवाज़
शिविर में बिस्तर पर रात अपनी दूसरी ही कथा कहती है,
जिनकी दुनाली से हिरन मर जाते हैं-
हिरन का हाड़-मांस स्वाद और तृप्ति आई है जिनकी थाली में
वे भी तुम्हारी तरह हैं,
शिविर के बिस्तर पर नींद में सूख रहा है हृदय सोच-सोचकर, सोच-सोचकर।
यही व्यथा-यही प्रेम सब तरफ़ बहता है-
कहीं कीड़े-मकोड़ों में, कहीं मनुष्य में
कहीं सबके जीवन में-
बसन्त की चाँदनी में,
हैं हम सब भी वही मृत मृग।