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उत्तर प्रवेश / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

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पुराने समय का सुर बहुत टूट गया है।
यदि कहा जाय:
समुद्र के पार कट गया है,
सोने की गेंद की तरह सूर्य या पूरब के आकाश पर-
उसकी पटभूमि में
बहुत फेन भरी लहर,
उड़ते फेन की तरह सारे आकाश में पक्षी
देश का पुराना साल बहुत पीछे छूट गया है
धूप के घेरे में, घास में सोकर
पोखर के पानी से किशोर के तृप्त हाथ में
ठंडा सिंघाड़ा-पानी उछालते-उछालते
युवक की पलकों पर
मृगनाभि की तरह महानगर के रास्ते पर
किसी एक सूर्य जगत में
आँखे बन्द हो गई थीं।

वहाँ फिर सूर्य अस्त होता है।
पुनरोदय होता है भोर का
मनुष्य हृदय का अगोचर
गुम्बद के ऊपर आकाश में मँडराता है।

इसे छोड़ दिन का कोई स्वर नहीं है
बसन्त का दूसरा कोई रूप नहीं है
रह गये हैं हवाई जहाज़
और आकाश पर मँडराते
अनगिनत हवाई अड्डे।

चारों ओर ऊँचे नीचे अन्तहीन नीड़-
अपने रहने पर भी वह हो उठता था चिड़ियों की तरह कोमल
उसके आनन्द से मुखर,
फिर भी वहाँ क्लान्ति है-
क्लान्ति-क्लान्ति,
क्यों है यह क्लान्ति, इसी सोच में हैरान
वहाँ भी मृत्यु,
है यही-
यही,
चाँद आता है अकेला,
फिर झुंड में आते हैं नक्षत्र
दिगन्त के सागर से पहली बार आवेग से बहती आती हवा
अस्त हो जाती है,
भोर उदय के साथ फिर लौैट आती है
असंख्य मनुष्यों के हृदय में अगोचर
रक्त के ऊपर आकाश में खून से लिखी हेडलाइन।
ये सब छोड़कर पक्षियों का कोई स्वर-
बसन्त का कोई अता-पता नहीं है।
निखिल और नीड़ के जन मानवों के समस्त नियमों से
सज्जन निर्जन बने रहते हैं।

भय, प्रेम ज्ञान-अज्ञान हमारी मानवतावादी भूमिका
अनन्त सूर्यों को अस्त करके
विगत शोक, है अशोककालीन इतिहास,
इसके बाद प्रवेश करते हैं और बड़े चेतना लोक में-
ये, भोर ही नवीन है मान लेना पड़ता है,
इसलिए अभी तीसरा ही अंक है आग के आलोक से ज्योतिर्मय।