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समारूढ़ / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास
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अच्छा तो फिर तुम्हीं लिखो एक कविता-
बोला-म्लान हँसी के साथ, छाया पिण्ड ने दिया नहीं उत्तर,
समझा कवि तो वह है नहीं, हास्यास्पद है यह:
पाण्डुलिपि, भाष्य, टीका, स्याही और क़लम ऊपर
बैठा है सिंहासन पर कवि नहीं- अजर, अक्षर
दंतहीन अध्यापक, जिसकी आँख में विवशता भरी कीच
हज़ार रुपये महावार और डेढ़-एक हज़ार
मृत कवियों का हाड़-मांस खोदकर कमाने वाला,
जबकि वे सारे कवि भूख प्रेम और आग की सेंक चाह कर
शार्क की लहरों पर हुए थे लोट-पोट।