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घोड़ा / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास
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मर नहीं गये हैं आज भी हम लोग-पर केवल दृश्य की तरह जन्मते हैं:
महीन(एक जगह का नाम) के घोड़े घास खाते हैं कार्तिक की ज्योत्सना के प्रान्तर में।
प्रस्तर युग के घोड़े लगते हैं-सब-अभी भी चारे के लोभ में
चरते हैं-पृथ्वी के विचित्र डाईनामों के ऊपर।
अस्तबल की गन्ध तैर आती है एक गहन रात की हवा में,
सूखे विषण्ण खर के शब्द झरते हैं इस्पात की चारा मशीन पर,
चाय की कई ठंडी प्यालियाँ खीर के रेस्तरां के पास
बिल्ली के बच्चे की तरह नींद में-
खाजवाले कुत्ते के साम्राज्य में आते ही हिल उठीं।
समय की निओलिथ स्तब्धता की ज्योत्स्ना की प्रशान्त फूँक से
पैराफिन लालटेन बुझ जाती है घोड़ों के गोल तबेले में।