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आकाशलीना / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास
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सुरंजना, मत जाना वहाँ
उस लड़के से नहीं बतियाना,
तारों की रुपहली आग भरी रात में,
तुम लौट आओ सुरंजना,
दूर-दूर बहुत दूर उस लड़के के साथ नहीं जाना
लौैट आओ, लहरों पर-इस मैदान में-
मेरे हृदय में,
आकाश में आकाश की आड़ लेकर
क्या बातें करती हो? क्यों साथ रहती हो?
अरे, उसका प्रेम तो केवल मिट्टी है:
जिसमें केवल उगती है घास।
सुरंजना!
हवा से परे की हवा-
आकाश के उस पार का आकाश।
उसी तरह तुम्हारा हृदय भी है आज महज़ घास।