शंख माला / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास
ऊबड़-खाबड़ पथ के पीछे और संध्या के अन्धकार में
कौन, एक नारी... आकार जिसने मुझे पुकारा...
बोली बेंतफल-सी नीली तुम्हारी दो दुःखी आँखें, मैं पाना चाहती हूँ।
नक्षत्रों में, कुहासे की पाँख में
वहाँ भी, साँझ की नदी में,
जहाँ उतराती है जुगनुओं की देह से रोशनी...
ध्ूासर घुग्घू की तरह डैने फैलाये
घुली-मिली गन्ध के अन्धकार में
धानसीढ़ी नदी में तैर-तैर
सुनहली धान की सीढ़ियों में धान के हर खेत में
मुझे खोजती रही है अकेली, घुग्घू की तरह
घुग्घू के प्राणों की तरह...
दिखलायी पड़ी चहचहाती चिड़ियों के रंग में सराबोर
वही घुग्घू, जो साँझ-अँधेरे भीगे शिरीष पर
दिखाई देता है...वही...
जिसके ऊपर सींग जैसा टेढ़ा चाँद उगता है,
कौड़ी जैसा सफ़ेद है जिसका मुँह
दोनों हाथ हिम,
आँखों में कटहल की लकड़ी जैसी लालिमा
मानो चिता जलती है दक्षिण की ओर सिर किये
हाथ, जैसे शंखमाला आग में जल रही हो...
उसकी आँख में शताब्दियों का नीला अन्धकार
उसका स्तन, नुकीले शंख जैसे दूध से भी मीठा
वह श्ंखमालिनी
दोबारा नहीं मिली
एक ही बार मिली थी वह पृथ्वी को...