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फिर आऊँगा लौटकर / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

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फिर आऊँगा मैं धान सीढ़ी नदी के तट पर लौटकर-इसी बंगाल में
हो सकता है मनुष्य बनकर नहीं-संभव है शंखचील या मैना के वेश में आऊँ
हो सकता है भोर का कौवा बनकर ऐसे ही कार्तिक के नवान्न के देश में
कुहासे के सीने पर तैर कर एक दिन आऊँ-इस कटहल की छाँव में,
हो सकता है बत्तख़ बनूँ-किशोरी की -घुँघरू होंगे लाल पाँव में,
पूरा दिन कटेगा कलमी के गंध भरे जल में तैरते-तैरते
फिर आऊँगा मैं बंगाल के नदी खेत मैदान को प्यार करने
उठती लहर के जल से रसीले बंगाल के हरे करुणा सिक्त कगार पर।

हो सकता है गिद्ध उड़ते दिखें संध्या की हवा में,
हो सकता है एक लक्ष्मी उल्लू पुकारे सेमल की डाल पर,
हो सकता है धान के खील बिखेरता कोई एक शिशु दिखाई दे आँगन की घास पर,
रुपहले गंदले जल में हो सकता है एक किशोर फटे पाल वाली नाव तैराये,
या मेड़ पार चाँदी-से मेघ में सफे़द बगुले उड़ते दिखाई दें-
चुपचाप अंधकार में, पाओगे मुझे उन्हीं में कहीं न कहीं तुम।