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रात खे रात किअं चई सघन्दें! / अर्जुन हासिद
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रात खे रात किअं चई सघन्दें!
सहज ऐॾो किथे बणी सघन्दें!
कंहिं सिफ़त खां सिवाइ ॿुटो नालो,
कंहिं बि पंहिंजे जो किअं खणी सघन्दें!
माण्हू पूॼिनि था पत्थरनि खे छो,
ईअ पिरोली किथे भञी सघन्दें!
ॻाल्हि सवली घणी ॾुखी लॻन्दइ,
मुरिकंदें, पर लॼी न थी सघन्दें!
मन खे लोॾे छॾीन्दा वाचूड़ा,
ॿूर वांगुर न त बि छणी सघन्दें!
अॼु वञीं थो, वरी मिलीं न मिलीं,
कंहिं सां कंहिं सां थी अजनबी सघन्दें!
देस परदेस ॻाइबें हासिद,
जे रखी कंहिं सां दोस्ती सघन्दें!