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पिरामिड / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

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समय बहता जा रहा है,
गोधूलि की मेघ-सीमा पर
धूम्रमौन साँझ,
रोज़ बजता है, नये दिन का मृत्यु घंटा,
श्मशान पर शताब्दी के शवदाह
की भस्माग्नि जल रही है,
पथिकों को म्लान चिता पर चढ़ाते-चढ़ाते
एक-एक कर मिट गए देश जाति संसार समाज।

किसके लिए, किसके लिए हे समाधि!
तुम बैठी हो अकेली-
कैसे, किसी विक्षुब्ध प्रेत की तरह
अतीत का सब ताम-झाम
पल में खोकर
अब क्या ढूँढ़ती रहती हो।

किस दिवा अवसान पर लाखों मुसाफ़िर
चिराग़ बुझा, घर-आँगन छोड़ गये,
चली गई प्रिया चले गये प्रेमी
युगान्तर में मणिमय गृहवास छोड़
चकित हो चले गये वासना के पंसारी-
कब किस बेला के अन्त में-
हाय, दूर अस्त माथे की देह पर।

तुम्हें गये नहीं वे अन्तिम अभिनन्दन का अर्ध्य चढ़ाये,
साँझ की ओस-नील समुद्र मथकर
तुम्हारे मर्म में बैठी नहीं उनकी विदावाणी।
तोरण तक आये नहीं लाखों लाख मृत्यु संधानी,
करुणा से पीले हुए-छल-छल गिरते आँसू
जंगले और दरवाजे़ पर काला पर्दा डाल गये
नहीं जानते हो तुम,
नहीं जानती मिस्र की मूक मरुभूमि भी उनका संधान
हे निर्वाक् पिरामिड!

अतीत का स्तब्ध प्रेत प्राण,
अविचल स्मृति का मंदिर,
आकाश का प्राण तकते बैठे हो स्थिर,
निष्पलक दोनों भौंहे ताने हुए
देख रहे हो अनागत पेट की ओर
रक्तमेघ मयूर के प्राण से,
जला जा रहे हैं नित्य-निशि अवसान पर
नव भास्कर।

चीख़ उठता है अनाहत मेमनों का स्वर
नवोदित अरुण के लिए
किस आश-दुराशा में स्थायी क्षण पर उँगली रखे
पाषाण पिरामिड के मर्म के आस-पास नाचता जाता है
पल देा पल खून का फ़व्वारा-
एक प्रगल्भ उष्म उल्लास का संकेत लिए
रुक जाती है किसी मुहूर्त में एक पथिक-वीणा,
शताब्दी का स्थिर विरही मन-
नीरव, आकाश के पीत-रक्ताभ सागर के पार मरता-फिरता रहता है संतरी
स्फीत, रेत सागर में
चंचल मृगतृष्णा के द्वार पर
मिस्र के अपहृत अन्तर के लिए
भिक्षा माँगते हो मौन!
कब खुलेगा रुद्र माया द्वार
मुखरित होगा प्राण संचार
कब बोलेगा ख़ामोश नीला आकाश
इसलिए टूटी रातों में बैठे हो, हाथ!

कितने आगन्तुक, काल अतिथि-सभ्यता
तुम्हारे द्वार आकर कह जाते हैं चट तुम्हारे अन्तर की बात
उठा जाते हैं उच्छृंखल
रुद्र कोलाहल
निरुत्तर निर्वेद निश्चल
रहते तुम मौन अन्यमंनस्क
प्रिया की छाती पर बैठे
नीरव में शव साधनारत-
हे खण्डित अस्थि प्रेमी स्वराट्
अपने सुप्त उत्सव से
उठोगे कब जगकर?

सुस्मित आँखें उठाकर
कब अपनी प्रिया के
स्वेद कृष्ण-पाण्डु चूर्ण व्यथित माथे पर
अंकित करोगे चुम्बन?

मिस्र के आँगन में गरिमा का दीया कब जलेगा?
किसके लिए बैठे हो आज भी अश्रुहीन, स्पन्दहीन,
उलटते-पलटते युग-युगान्तर के श्मशान की राख
प्रेम पर देते हुए पहरा
अपनी प्रेत आँख खोले हुए।

शुरू होगा हमारे जीवन का पतझर
जाते हुए हेमन्त के कोहरे में-
जलती दोनों आँखें खोले?

दो दिन की ओट में
हम गढ़ते हैं स्मृति का श्मशान
नव उत्फुल्ल सुन्दरी के गीत हमें
भुलाये रखते हैं विचित्र आकाश में।

अतीत की हिमगर्भी इस क़ब्र के पास
भूल जाते हैं दो बूँद आँसू गिराना।