भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सोने की घण्टी / प्रदीपशुक्ल
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:07, 1 सितम्बर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रदीप शुक्ल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
हरी मखमली चादर लिपटी
जैसे हो सोने की घण्टी
या फिर कहीं लॉन के ऊपर
मुँह लटकाए बैठा बण्टी
पियरी ओढ़े नई दुल्हनिया
झाँक रही खिड़की से नीचे
पीताम्बर लपेट कर जोगी
ध्यानमग्न हो आँखें मीचे
गोद मचल कर लटक रहे हों
जैसे बच्चे कहीं हठीले
अरे! नहीं ये तो कनेर के
फूल खिल रहे सुन्दर पीले।