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उलझन भरी डगर में है / राजश्री गौड़
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उलझन भरी डगर में है सुलझा हुआ सा कुछ।
नक़्शे कदम भी लगता है बहका हुआ सा कुछ।
आँखों के आईने में तेरा अक्स तो नहीं,
आता क्यों हम को नज़र है धुंधला हुआ सा कुछ।
पलकों के चिलमनों में है अश्कों का कारवां,
ठहरा हुआ सा कुछ है तो ढलका हुआ सा कुछ।
आकर लिपट ही जाती हैं यादें तेरी सनम,
रौशन है मेरे सीने में बुझता हुआ सा कुछ।
तुम से हमारा रिश्ता भी कितना अजीब है,
सिमटा हुआ सा कुछ है तो बिखरा हुआ सा कुछ
दिल की गली में ऐसे भटकती है आरजू,
ज्यों रेत के दरिया में हो खोया हुआ सा कुछ।
वो जख़्म जो मिला है मुहब्बत में राज को
भर सा गया है कुछ तो है रिसता हुआ सा कुछ।