स्त्री / निधि सक्सेना
कह देना कितना आसान है
मन में रखना कितना मुश्किल...
तुम कितनी आसानी से हर भाव व्यक्त कर देते हो
चाहे क्रोध हो...
असहमति हो...
विवेचना हो...
निर्णय हो...
या कि प्रेम ...
मैं इतनी सहजता से नहीं कह पाती
कि परिणामों को पढ़ना आता है मुझे...
अपना क्रोध चरितार्थ करने से पूर्व
मुझे अनुमान लगाना पड़ता है
कि फिर तनाव में कितने दिन गुज़ारने होंगे...
असहमति दर्ज करने से पूर्व
मुझे अनगिनत सवालों के जवाब तैयार रखने होते हैं...
विवेचन विमर्श से पूर्व मुझे ये सुनने तैयार रहना पड़ता है
कि मुझमें व्यवहारिक ज्ञान की कमी है...
विभिन्न निर्णयों में मुझे निहित दायरों का ध्यान रखना पड़ता है...
और प्रेम...
हाँ वो भी अभिव्यक्त नहीं कर पाती मैं
बड़ा कोमल अहसास है वो
भय लगता है कहीं तुम्हारी विभिन्न विवेचनाओं में दब न जाये...
तुम्हारी व्यवहारिक्ताओं में ठगा न जाये...
तुम्हारी व्यस्तताओं में एकाकी न रह जाये...
नहीं कह पाती हूँ मैं
कि कदाचित् मेरे प्रेम का स्वाभिमान मेरे प्रेम से कहीं अधिक बड़ा है...