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अनकहा / निधि सक्सेना

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अक्सर आते जाते
एक रवायत की तरह तुम मुझसे पूछते हो
कैसी हूँ मैं?
और मैं एक आदत की तरह मुस्कुराकर जवाब देती हूँ
अच्छी हूँ...

मैं नहीं बता पाती
कि अभी अभी आँखों में चाँदनी का तिनका चुभा है...
कि अभी अभी आईने से नज़र चुराई है...

कि अभी अभी मैं खुद खुद से उलझी हूँ...
कि अभी अभी दुपट्टे में न जाने कितनी गिरह बांधी हैं...

कि रात चाँद उतरा था दरीचे से
हमने साथ इंतज़ार किया सुबह का...

कि काँच चुभा है पाँवो में
उम्मीद का कांसा टूटा था कल...

मेरी मुस्कराहटों के पीछे की कहानियाँ
अनबूझी और अनकही है
और तुम्हारे पूछने और मेरे कहने में
सदियों के फासले हैं...