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ज़िन्दगी / निधि सक्सेना

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सखिया मेरी
याद है उस दिन फोटो खींचते समय
तुम बार बार कह रहीं थीं
अपनी हँसी संयमित रखो
न कम न अधिक...
मैं या तो ठहाका लगाती
या संज़ीदा हो जाती
कितनी झुंझला गई थीं तुम...

सुनो सहोदरा
हँसा तो संयम में नहीं जा सकता ना...
केवल यही काम दायरों में न करना आया मुझे
हमने जिन्दगी दायरों में जी
हर जगह संतुलन बनाया
समझौतों से परहेज़ नहीं किया...

पर जिंदगी तो एक दायरा नहीं है
अलौकिक है विराट है
अनिश्चित है विस्मित है
कभी हँसने के लिये वजह देती है
चिंहुक कर गले लगा लेती है...
कभी ज़ार ज़ार रुला देती है
मृत्यु से पहले मार देती है...

इस चिरपरिवर्तनशील जिन्दगी का कोई भरोसा है क्या...
वक्त साँय साँय गुजर रहा है
संयत स्वर संयत विचार तक ठीक है
परंतु हँसा तो असंयत जा सकता है...

तुम और हम यूँ बेवजह हँस लें
बेसबब रो लें
बस यही अर्थपूर्ण पल हैं
यही जीवन की गूँज हैं
देहरी के सन्नाटों में
यही संगीत है
ढोलक की थाप पर थिरकता गीत है...