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विडम्बना / बीरेन्द्र कुमार महतो

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ये कैसी विडम्बना है जीवन की
सब कुछ होते हुए भी
न जाने क्यों
बेचैनी सी होती है
और भी ज्यादा
ज्यादा पाने की,
न जाने क्यों
खुशहाल जिंदगी में अक्सर
रोने का मन करता है
बनी-भूति, मेहनत-मजदूरी के दिन
सुकुन भरी जिंदगी
जिया करता था अक्सर,
दो बखत की
नून-रोटी से काफी खुश था
आज इस उंचाइयों पर
कुछ भी अच्छा नहीं लगता
आखिर किसके लिए
मेहनत करता हूं
किसके लिए कमाता हूं
जिंदगी की इस भागमभाम
रेला में
सिर्फ तनाव ही तनाव हैं
मेरे हिस्से में,
एक तरफ शारीरिक पीड़ा
तो दूसरी तरफ मानसिक बेचैनी,
रंग बदलती इस दुनिया की
आपाधापी में,
यह विडम्बना ही है
सुकुन के वो दो पल
खो दिये मैंने
जिसमें जीवन का सारा
सुख, समृद्धि था छिपा!