भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुना, सुना तुमने? / नीता पोरवाल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:45, 21 सितम्बर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नीता पोरवाल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब जब
लुढकते हैं दिन
रीती सुराही की तरह
जब बाँध देती हूँ
शाम की कतरने
पेड़ की टहनियों से
किसी टोटके की तरह
इंकार कर देता है तब
मेरा अपना ही साया
मुझे पहचानने से
तब रात की स्लेट पर
उभर आती अपनी तस्वीर से
चीखते हुए कहती हूँ मैं...
‘दया के पात्र हैं सिर्फ़ वे
जिनके पास बेशुमार वजहें थीं
निर्मम होने के लिए!’
सुना, सुना तुमने?