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लाल चूनर / नीता पोरवाल

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‘बचा लो मुझे बचा लो’
नुकीले पंजों में छटपटाता
कातर दारुण स्वर में गुहार लगाता
आज फिर कोई निरीह
और उभर आती हैं दिलो दिमाग पर
अनगिनत गहरी दर्दनाक खरोंचे

सूजे माथे... मरोड़ी स्याह पड़ी कलाइयाँ
चूड़ियों के टूटे रंगीन टुकड़े
चारो ओर लुढकते बर्तनों की
कर्ण भेदी चीखें सुनीं हैं मैंने
कि कहीं कुछ भी नहीं बदला

अपने पाँव पर खड़े होने में नाकाम
फिर भी तांडव करता भरतार
बिलखते दुधमुंहें को सूखी छाती से चिपकाए
मायके की बंद चौखट याद करती
तो कभी सहानुभूति की ओट ले
घूरते डरावने सायों से बचती बचाती
आँख खुलते ही सुबह
खौलते पानी में
चाय की पत्ती डालने से पहले
मांग में गहरा सिन्दूर भरना नहीं भूलती

क्लास में बदलाव, बराबरी का दर्जा,
आसमान, पंछी, रंग जैसे शब्दों के
मायने समझाते हुए ठठा कर हंस पड़ती
लोहे के नुकीले तारों में फंसी
ऐसे ही तार तार होती रहती है लाल चूनर...