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चाँदनी लजाय गेलै / शिवनारायण / अमरेन्द्र

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देखलिचै
पिछुलका छज्जा रोॅ एक कोण्टा में
सिर पटकी रहलोॅ छै एक मुट्ठी चाँदनी
आरो ओकरा देखतें
ठगली रं ठाड़ी छै
सरङगोॅ पर आदिम याद।

आय फेनू/हवा भरी भै गेलोॅ छै
सालो पुरानोॅ गन्ध में
कि भरखर राती के/दूधिया उजास में
दू मनहर नर-मादा वाला छवि
आपस में बतियैतें रहेॅ
सौंसे दुनियां सें अजान
तबेॅ पलाश आरो अमलतास के
पुष्पवर्षा में भींगयोॅ/बनाय दै छै काठ
ऊ सृष्टि के एक क्षण लेली।
कि तखनिये मेघदंश सें
चोटैलोॅ चाँद जाय गिरै छै झाड़ी में
शायत् चाँदनी लजाय गेलै
याद भरमाय गेलै।