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सिजु कनी कढी थो कतराए / एम. कमल

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सिजु कनी कढी थो कतराए।
ॾिसु ॾिसु! रात मोट थी खाए॥

सांवण जो महिनो, उभु उघाड़ो!
पाण ते मौसम दाग़ थी लाए॥

साहिल जी रेखा मिटिणी ना।
कोई छोलियुनि खे समुझाए॥

लाचारीअ जी ताराज़ीअ में।
अॼु हर को पाणु थो तोराए॥

उभ ताईं आ कूड़ जी डोड़।
थकिजी पवन्दी खेसि डोड़ाए॥

उफ़्वाहनि जी क़ातिल भुणि-भुणि।
शहर जो वई घरु घरु घाए॥

हिक घर में भी घुरनि धार चुल्हि!
वक्तु वियो आहे हीअ बाहि लॻाए॥

शरीफ़ हो, जेसीं ग़रीबु हो।
हाणे हफ़्ता थो खाराए॥

छा लिखन्दें मुंहिंजीअ समाधीअ ते?
शाइरु हो, वयो चीखे़े चिल्लाए॥